Tuesday, April 22, 2025

जाने कहां गए वो दिन…

क्या युग था, जीवन में कितनी सच्चाई थी, जब हम प्रकृति की शुद्ध हवा में सांस लेते थे, खुली छत पर आसमान के नीचे सोते थे। कम संसाधन थे, पर खुश थे।

अपनों के बीच हंसी-मजाक करते थे, इकट्ठे बैठकर खाते थे, अपना ही नहीं अपनों का भी सोचेते थे। अपनों में मां-बाप, भाई-बहन के अलावा मित्र व उनका परिवार, नाते-रिश्तेदार सभी तो अपने थे। गली-मौहल्ले के पड़ौसी भी अपनों में ही गिने जाते थे। उनका दुख भी अपना दुख था, उनका सुख भी अपना सुख था।

गली-मौहल्ले में साथियों के साथ हंसी-ठिठोली होती थी, अपना दुख बहुत छोटा लगता था, क्योंकि उसमें अपने दोस्तों का साथ, बड़ों का दुलार, कन्धे पर बड़ों का हाथ.. कि चिंता क्यों करता है? ‘मैं हूं ना’, केवल यही सब बड़ी से बड़ी चिंता को हर लेता था। थोड़ी सी खुशी साथियों के साथ जीवन भर की यादगार खुशी बन जाती थी।

घर में पहले लोग केवल मौसमी नहीं हर मौसम के फल खाते थे, जैसे आम, अमरूद, खरबूजा, तरबूज आदि। संयुक्त परिवार में रहना चाचा-चाची, ताऊ-ताई, दादा-दादी सब तो मां-बाप से ज्यादा दुलार करते थे। कभी डांटते थे, तो कभी गलती होने पर पापा की मार से बचाते भी थे। इंतजार रहता था, कब बुआ आयेगी, परन्तु आज यह सब छूट गया बहुत पीछे। अब तो मैं, मेरी बीवी और एक या दो बच्चे और ये बच्चे भी पढ़-लिखकर मां-बाप को छोड़कर फुर्र हो जाते हैं, कमाने को धन और नाम।

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