मानव भौतिक सम्प्रदायों की प्रचुरता को ही सुख का आधार मानने का भ्रम पाले रखता है। इसी कारण धन कमाने और संग्रह करने में नैतिक मूल्यों को भी तिलाजंलि दे देता है। धन आना चाहिए वह कैसे भी आये यही उसके जीवन का लक्ष्य बन गया है।
वह भूल रहा है कि दुराचरण एवं अनैतिक कृत्यों से एकत्र की गई धन सम्पदाओं में उसे सुख मिल ही नहीं सकता, जिसे सुख कहा जाता है, पहले तो उसे पहचानिए। पत्नी, पुत्र तथा मित्र अनुकूल न हो सके तो कैसी सुखानुभूति शेष रह जाती है, रोग पीछा न छोड़े तो कैसा आनन्द।
लोक व्यवहार में कोई स्थान नहीं कोई सम्मान नहीं तो कौन ऐसा भोग है जो आन्तरिक क्लेश नहीं देगा। सुखानुभूति वही कर सकता है, जो सदाचार को अपनाकर आगे बढे। उसके द्वारा ही यथार्थ जीवन को सही दिशा दी जा सकती है। याद रखो लोकहित के विरूद्ध कोई भी कार्य अनैतिक है।
उसके सापेक्ष लोक कल्याण की दिशा से शुभ अन्य कोई दिशा है ही नहीं। कल्याण की भावना से मोक्ष की दिशा निकलती है। इसीलिए जीवन को मानव कल्याण और जीव उद्धार की दिशा में ले जाना चाहिए। अपकार की भावना आपको दुख के सागर में डुबो देगी और सुखानुभूति की राह में अवरोधक ही बनी रहेगी।