‘सन्तोषेव सुखस्य परम निदानम्’ इस शास्त्रीय वचन का अर्थ है कि संतोष ही सुख की परम औषधि है, संतोष का प्रयोजन यह है पूरी निष्ठा, तत्परता, पुरूषार्थ और प्रयत्न से किये गये कर्मों का जो फल आपको प्राप्त हो उससे अधिक का लोभ न करना संतोष का अर्थ अकर्मण्यता नहीं, आलस्य और प्रमाद नहीं अपितु अपने कर्तव्य को पूरे पुरूषार्थ से पूर्ण करना और उसका जो फल प्राप्त हो उसी पर संतुष्ट रहना।
व्यक्ति के जीवन में अनेक लालसाये जन्म लेती हैं, तृष्णाएं उसे व्याकुल बनाती हैं। इस लालसाओं और तृष्णाओं का दास न बनना संतोष है। पुरूष का धर्म पुरूषार्थ करना है। कर्म करना तो मनुष्य के अधिकार में है, किन्तु फल उसके अधीन नहीं है, फल का प्रदाता तो परमात्मा है
। एक और तथ्य विचारणीय है कि प्रारब्ध में लिखा हुआ हमें पुरूषार्थ द्वारा ही प्राप्त होता है, किन्तु पुरूषार्थ आप चाहे जितना करे आप कितनी भी चतुराई दिखाये प्रारब्ध में लिखे से अधिक कुछ प्राप्त नहीं होगा। अतएव प्रभु से मिले फल से ही संतुष्ट रहे, तृष्णायें न बढाये।
इस प्रकार संतोष करने से उत्तम से उत्तम सुख मिलता है। तृष्णा जितनी बढेगी सुख उतना ही कम होता जायेगा, तृष्णा ऐसी आग है, जो संतोष के जल के बिना बुझती नहीं। संतोष ही इसे शान्त कर सकता है, संतोष नहीं होगा तो तृष्णा इतनी भड़कती है कि भीतर-बाहर सब भस्म कर देती है।