हम लोग मंदिर जाते हैं, गुरूद्वारे जाते हैं, चर्च मस्जिद आदि अन्य पूजा ग्रहों में जाते हैं, वहां परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। अपने लिए अपने परिवार के लिए सुख की याचना करते हैं, परमेश्वर से अच्छी संतान मांगते हैं, अच्छा कारोबार मांगते हैं, धन सम्पदा तथा मान सम्मान मांगते हैं, किंतु इन सबके सापेक्ष हम प्रभु से यह भी प्रार्थना करे कि वह हमें काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि कुटिल भावनाओं से दूर रखें तथा क्षमा, सरलता, स्थिरता, निर्भयता तथा अहंकार शून्यता हमारी स्थायी सम्पत्ति बने।
यदि मनुष्य को सुख शांति की कामना है, सच्चे आनन्द की उत्कंठा है तो उसके लिए श्रेयस्कर यही है कि क्रोध, घृणा, ईर्ष्या की भावना को मन से निकाल दें।
हमारे द्वारा कोई भी प्राणी बदले की भावना का शिकार न हो। हमें अहंकार छू तक न जाये क्योंकि इन सब दुर्गुणों के मूल से अहंकार ही तो है। जब अहंकार आ जाता है तो हम दूसरों को हेय समझने लगते हैं और यही चिंतन हमारे लिए दुखों का द्वार खोल देता है और ऐसी दशा में हम न जाने क्या-क्या पाप करने को उद्यत हो जाते हैं। रावण के विषय में सभी को ज्ञान है कि वह चारों वेदों का पंडित था, महान वैज्ञानिक था पर अहंकार उसे ले डूबा।