मैं भ्रमित हो गया हूं, क्योंकि जैसे ब्रह्मांड में ब्रह्मपुरूष (परमात्मा) के प्रकाश से प्रकृति प्रकाशमान हो रही है, मैं उस पार ब्रह्म को भूलकर प्रकृति को ही सब कुछ समझ बैठा हूं। वैसे ही पिंड में आत्म पुरूष के प्रकाश से शरीर प्रकाशमान हो रहा है, मैं उस आत्मतत्व को भूल कर शरीर को ही सब कुछ समझ बैठा हूं और इसी को सजाने संवारने और सुख एवं तृप्ति देने में ही इस अमूल्य जीवन को समाप्त कर देता हूं।
हे प्रभो, मेरी बुद्धि से अज्ञान के आवरण को हटा दो। मेरे भीतर ज्ञान का प्रकाश फैला दो ताकि मैं इस तत्य को जान सकूं कि यह शरीर तो मुझे आत्म तत्व को पहचानने के लिए साधन रूप में प्राप्त हुआ है। मैं तो सदैव से था और सदैव ही रहूंगा, किन्तु मृत्यु के पश्चात जब तक भस्म नहीं होगा, तब तक ही यह शरीर मेरा है, भस्म हो जाने के पश्चात यह अपने-अपने तत्वों में विलीन हो जायेगा, परन्तु जो रहेगा वह जीवात्मा द्वारा इस शरीर के माध्यम से किये गये कर्म होंगे। उन्हीं के आधार पर कुटिल पाप मार्ग को त्याग सुपथ की ओर जा इसी में तेरा कल्याण है। स्वस्ति, स्वस्ति, स्वस्ति।