मन भोग विलास के कार्यों में ऐसा दौडता है, जैसे मांस पर पक्षी झपटता है और सत्कर्मों से ऐसे भागता है जैसे बालक पाठशाला से। समुद्र को सुखा देना आसान है, बडे-बडे भारी पर्वतों को उखाड डालना भी कठिन नहीं, परन्तु मन को वश में कर लेना सबसे कठिन कार्य है। भयंकर रोगों की चिकित्सा जिस यत्नपूर्वक की जाती है, उससे भी अधिक यत्न से इस मन की चिकित्सा करनी चाहिए। मन की चिकित्सा करने के लिए आसक्ति को विचारपूर्वक त्याग कर निरासक्ति को अपनाये। पूर्ण रूपेण अनासक्त होने पर ही मन पर नियंत्रण हो पायेगा तथा आत्म साक्षात्कार भी तभी सम्भव हो पायेगा।
लोहे से लोहा काटता है, बिल्कुल उसी प्रकार मन को मन से काटो। शुभ विचारों के द्वारा ही अशुभ विचारों का त्याग किया जा सकता है। आत्म चिंतन, प्रभु चिंतन ही मन को शीघ्र वश में करने का उत्तम साधन है। मन ही मन का मित्र है और मन ही मन का परम शत्रु भी है। वैराग्य, साधना और प्रभु चिंतन के शस्त्र द्वारा मन के असत रूप को काट डालो, क्योंकि यह मन ही है, जिसने नाना संकल्पों के द्वारा इस विशाल जगत का विस्तार किया है, जिसके कारण यह जीव मनोमोह के गर्त में पड़ा हुआ है। इसलिए मन को मन के ही द्वारा अनुशासित करना सबसे जरूरी है, क्योंकि यह मन ही है जो उस आत्मा के आदेशों की अवहेलना करता है, जो परमात्मा के प्रतिनिधि के रूप में हमारे भीतर विराजमान है।