हम अपने को सजाये नहीं, संवारने का प्रयास करें, जीने की कला सीखें। जितनी ऊर्जा हम सजाने में लगाते हैं उससे आधी ऊर्जा भी संवरने में लगाये तो संसार के कष्ट ही दूर हो जाये। सजाने का अर्थ व्यक्ति के भीतर अहंकार की जगती हुई प्यास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। हम सभी सबमें प्रथम आने के पागलपन से त्रस्त हैं। लगभग सभी इस महामारी से पीड्ति हैं। हमें लगभग सभी महत्वाकांक्षाओं के द्वार पर खड़े हैं। यह एक ऐसी बीमारी है, जो सभी के जीवन का सुख-चैन छीन लेती है। हे भोले प्राणी इस जीवन को ऐसे जीयो, जिससे इस जीवन के साथ-साथ अगले जीवन को भी संवारने में ध्यान रहें। जीवन मिलता नहीं निर्मित करना होता है। जन्म परमेश्वर से मिलता है, परन्तु जीवन का निर्माण मनुष्य को स्वयं करना पड़ता है। इसीलिए मनुष्य को संस्कारों की आवश्यकता होती है। जैसी शिक्षा मिलेगी वैसे ही संस्कार बनते जायेंगे। इसलिए शिक्षा ऐसी हो जो जीवन जीने की कला सिखाये। ऐसे गुणों को आत्मसात करे कि दूसरों का सम्मान करना आये, हम कैसे भी ऊंचे पद पर पहुंच जाये, कितनी भी सम्पन्नता मिल जाये, हमारी जय-जयकार तक होने लगे, परन्तु हमें अहंकार छू तक न जाये। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव सदैव बना रहे।