छल-कपट नरक के द्वार हैं, जबकि निर्मलता हमें स्वर्ग का मार्ग दिखाती है। निर्मलता से तात्पर्य मन की अर्थात आन्तरिक निर्मलता से है। आन्तरिक निर्मलता के बिना बाहरी सुन्दरता मूल्य हीन है। सुन्दरता हमारे अच्छे स्वाभाव से ही हैं। दया, सहिष्णुता, सहयोग, परोपकार, करूणा और प्रेम हमारी आत्मा को निर्मल बनाती है। हमारा अच्छा व्यवहार ही प्रशंसनीय और अनुकरणीय होता है। जिस प्रकार स्वस्थ रहने के लिए शरीर की स्वच्छता आवश्यक है, उसी प्रकार प्रभु सुमिरन के लिए मन की स्वच्छता अतिआवश्यक है। जिसका मन निर्मल हो गया उसे बाहरी सज्जा की आवश्यकता नहीं रहती। मन की रूग्णता से तन का तेज भी नष्ट हो जाता है, इसलिए अन्त:करण में सदैव सुन्दर, कोमल और सतोगुणी भाव ही रखने चाहिए। पूजा-पाठ, ध्यान सदाचार, सात्विकता तथा सकारात्मक सोच से मन को शान्ति मिलती है, आत्मबल में वृद्धि होती है, प्रभु भी निर्मल मन को ही स्वीकार करते हैं, मन प्रसन्न और निर्मल रहेगा तो हमें प्रभु के समीप जाने में संकोच भी नहीं होगा। फिर क्यों न जीवन में सांझ होने से पहले हम अपनी चेतना को जागृत कर ले, मन को निर्मल बना ले, प्रभु के प्यार की पात्रता प्राप्त कर लें।