अपने जीवन में समय के उतार-चढ़ाव का सामना सभी को करना पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति अपने उतार के काल में अर्थात अपने दुर्दिनों में दुखी होकर निराशा तथा झुंझलाहट में जीवन जीता है अथवा अपने जीवन को भार समझता है तो वह जीवन यापन तो करता है, परन्तु वह जीवन के आनन्द से वंचित ही रहता है, क्योंकि वह अपने अन्तर से जुड़ा हुआ नहीं होता।
दृष्टा होकर भी अदृश्य की खोज नहीं करता। इसीलिए उसका जीवन निराशा में उलझकर रह जाता है। मनुष्य तो वह है जो कठिनाईयों में भी छिपे अवसरों को पहचानकर उनका सदुपयोग करता है। हमें यह ज्ञान होना चाहिए कि जब जन्म लिया है तो पूर्व जन्मों का फल भी भोगना पड़ेगा।
उन किये गये कर्मों को तो हम बदल नहीं सकते। उनके फल के रूप में हमें सुख भी मिलेगा और दुख भी मिलेगा। इस संसार में ऐसा कोई नर या नारी नहीं, जिन्हें दुख न देखना पड़ा हो, चाहे वह ऋषि हो, महात्मा हो, गुरू पैगम्बर अथवा अवतार हो। दुख सबके जीवन में आते हैं। दुख के आने को तो हम रोक नहीं सकते, क्योंकि उन्हें रोक पाना हमारी क्षमताओं से बाहर है। हमारी क्षमताओं में तो केवल यह है कि दुख के क्षणों में उन दुखों को जीवन का अनिवार्य अंग मानकर हम अपना मानसिक संतुलन और धैर्य तो बनाये रख ही सकते हैं।