त्याग का सम्बन्ध व्यक्तियों और पदार्थों के त्याग से नहीं, वासना या कामना के त्याग से है। हमारा मन इन्द्रियों के भोगों और पदार्थों का रसिया है। जब तब इस मन को इन भोगों के स्वाद से उत्तम रस या स्वाद का अनुभव या प्रतीति बंद नहीं होती अर्थात जब तक भोगने की क्षमता समाप्त नहीं होती, तब तक यह इन्द्रियों के भोगों का त्याग करता ही नहीं। संसार में रहते हुए, भोगों की क्षमता के चलते इनसे विरक्त हो जाना ही त्याग की संज्ञा में आता है। यदि मन से कामनाओं का त्याग नहीं हुआ तो जंगलों अथवा पर्वतों पर जाने से क्या लाभ हुआ? संसार का त्याग हर कोई नहीं कर सकता, परन्तु हर कोई प्रेम और दया के गुण तो अपना सकता है। संतों ने भी मनुष्य को प्रेम और दया जैसे सरल स्वाभाविक, सहजमय और आनन्दमय मार्ग को अपनाने का उपदेश दिया है, जिसमें वह संसार के सारे उत्तरदायित्वों को सच्चाई और निष्ठा से निभाते हुए स्वयं को प्रभु से जोड़कर सचा त्यागी बन सकता है।