दान की महत्ता सभी धर्मों, सम्प्रदायों में बताई गई है। दान को अपना कर्तव्य मानकर करे, उससे आगे कुछ नहीं, परन्तु दान कुपात्र को न दिया जाये, यह ध्यान अवश्य रखा जाये न ही किसी कामना की पूर्ति के लिए दान करें। इस प्रकार का दान करना न करने के समान है। कोई व्यक्ति किसी कामना की पूर्ति के उद्देश्य से मार्गदर्शन के लिए अपने गुरू के पास जाता है, तब उसे रूपया, सोना, चांदी, वस्त्र, अनाज आदि दान के लिए कहा जाता है तथा यह बताया जाता है कि इससे ऊपर वाला (परमात्मा) प्रसन्न होकर उसकी मुराद पूरी कर देगा। यह सर्वथा अवैज्ञानिक भाव हैं। ‘ऊपर वाला खुश होगा’ इसका आश्य शरीर में सबसे ऊपर स्थित मन-मस्तिष्क की प्रसन्नता से बताया जाये तो ठीक है, क्योंकि सही दान से मन को शान्ति मिलती है। जिस दान से शान्ति न मिले वह दान है ही नहीं। भौतिक वस्तुओं के दान से ईश्वर कुछ टपका नहीं देगा। गलत सुझाव देकर धर्म के कथित ठेकेदार शोषण करते हैं। यदि उसमें कुछ असमर्थता दिखाई जाये तो अपनी दुकानदारी प्रभावित होते देख धर्म का भय दिखाते हैं। पुरूषार्थहीन व्यक्ति को जो दान से ही जीवन चला रहे हो, को दान देना पाप है। दान के ढिंढोरा पीटने दान कर उससे वाहवाही लेने से भी पाप लगता है।