जब तक हममें संकीर्णता रहेगी ईश्वर से हमारी दूरी भी बनी रहेगी। उदात्त दृष्टिकोण और उदार रीति-नीति अपनाकर ही उसके समीप पहुंचने वाली पगडंडी पर हम अग्रसर हो सकते हैं। छोटे और मलिन पात्र में बड़े और पवित्र पदार्थ नहीं रखे जा सकते। जैसा और जितनी मात्रा में पदार्थ हो उसी स्तर का उतना ही बड़ा उसके लिए पात्र होना चाहिए अन्यथा पात्र छलक जायेगा।
बड़ी जलराशि गहरे और विशाल तालाब में ही समा सकती है। ईश्वर महान है। महानता के रूप में ही उसकी स्थापना अन्त:करण में हो सकती है। इसीलिए महामानवों को ही ईश्वर भक्त कहा जाता है। संकीर्ण स्वार्थपरत की धुंध जैसे-जैसे छटेगी परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग उसी के अनुपात में अनुकूल होता जायेगा।
याद रखो मैले पात्र में तो याचक को कोई भिक्षा भी नहीं डालता। पात्र को स्वच्छ करके ही भिक्षा मांगने का अधिकारी बना जा सकता है। हृदय पात्र को पवित्र बनाकर ही परमपिता परमात्मा की प्राप्ति की जा सकती है।