जिज्ञासु उपनिषद के ऋषि से प्रश्र करता है कि किसके द्वारा प्रथम प्राण संचार सम्भव हुआ। माता के गर्भ में पहुंचने पर प्रथम प्राण कौन स्थापित करता है। उसमें जीवन संचार के रूप में गति कैसे उत्पन्न होती है। ऋषि उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए बताते हैं कि यह कृतित्व आत्मा का है।
भ्रूण अपने आप में कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं है। माता-पिता की इच्छानुसार संतान कहां होती है। पुत्र चाहने पर भी कन्या गर्भ में आ जाती है। जिस आकृति प्रकृति की अपेक्षा की जाती है, उससे भिन्न आकृति की संतान जन्म ले लेती है। इसमें माता-पिता का प्रयास कहां सफल होता है।
तब भ्रूण को चेतना प्रदान करने का कार्य कौन करता है, वह आत्मा है। सब को यह ज्ञान है कि मृत शरीर में प्राण संचान न रहने से उसे भीतर वायु भरी होने पर भी सांस को बाहर निकालने की सामर्थ्य नहीं होती। श्वास प्रणाली यथावत रहने पर भी प्राण स्पंदन नहीं होता। आगे की स्थिति यथावत रहते हुए भी जिस कारण मृत शरीर जड़वत नि:चेष्ट हो जाता है, वह महाप्राण का प्रेरणा क्रम का रूक जाना ही है। इस सूत्र संचालक महाप्राण को ही ‘आत्मा’ कहा जाता है।