अच्छाई का अभिमान बुराई का मूल है। अभिमान रहित अच्छाई पूजा के योग्य है। अपवित्र उपाय से पवित्र उद्देश्य की पूर्ति की आशा करना भारी भूल है। दोष करने की अपेक्षा पर दोष दर्शन कहीं बड़ा दोष है। दोष दर्शन की प्रवृति मानव में स्वत: विद्यमान है, परन्तु व्यक्ति प्रमादवश इसका उपयोग अपने जीवन पर न करके अन्य पर करने लगता है, क्योंकि पर दोष दर्शन सरल है। इसमें कोई कठिनाई भी नहीं आती न कोई भय उत्पन्न होता है, परन्तु इसके बड़े दुखद एवं भयंकर परिणाम होते हैं। व्यक्ति अपने दोषों को हटाने के स्थान पर अपनी ऊर्जा को दूसरों के दोषों को खोजने में ही लगा रहता है। अपने दोषों पर ध्यान दे ही नहीं पाता, इसलिए उन्हें दूर करने की सोच ही नहीं पाता, जो अपने उत्तरदायित्वों और अपने कर्तव्यों को भूले रहता है अर्थात जो अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन है, उसे दूसरों के कर्तव्यों की चर्चा करने का रोग उत्पन्न हो जाता है। सभी मनुष्यों को अपने कर्तव्य पालन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। दूसरे क्या करते हैं उसकी चिंता में अपने को नष्ट न करो। जो अपने उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों का समुचित पालन करता है वास्तव में वह एक तपस्वी है, क्योंकि कर्तव्य पालन से बड़ा न कोई तप है न साधना।