गीता का वचन है कि विषयी पुरूषों की संगति त्याज्य है। ऐसे पुरूषों की संगति से हृदय में भोगेच्छा जागृत होती है, जिससे व्यक्ति का चिंतन भोगों का ही होगा। ऐसे में भगवान का ध्यान किस मन से हो सकता है, क्योंकि नियम यह है कि जिसे पाने की तीव्र इच्छा होगी, उसी का ध्यान भी होगा।
लोलुपता भी वर्हिमुखता का द्योतक है, क्योंकि लोलुप व्यक्ति इच्छित भोग का चिंतन करता रहता है, उसका हृदय सदैव अशांत रहता है। इसलिए लोलुप व्यक्ति भगवान के ध्यान से वंचित रहता है।
प्रभु भक्त जिज्ञासु चाहे घर में गृहस्थी के रूप में रहे चाहे वन में रहे वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। कारण- गृहस्थी व्यक्ति बन्धन में नहीं आता, परन्तु गृहासक्त बन्धन में आता है। गृहस्थ में घर में रहना बुरा नहीं, किन्तु घर के प्राणी पदार्थों में आसक्ति बुरी है, परिवार बुरा नहीं, परन्तु परिवार में अति मोह बुरा है, धन बुरा नहीं, परन्तु धनासक्ति धन का अहंकार तथा धन का दुरूपयोग बुरा है। धन का संचय बुरा नहीं, किन्तु धन को यथा योग्य समयानुसार धर्म कार्यों में सदुपयोग न करना बुरा है।
गृहस्थी को कभी-कभी एकान्त में बैठकर ऐसा विचार करना चाहिए कि यह वह घर है, जिसमें मेरे आने से पूर्व मेरे अनेक पूर्वज आकर जा चुके हैं। कुछ हमारे सामने भी गये और हमें भी किसी न किसी दिन अवश्य जाना होगा। फिर शेष जीवन में हमें कैसे कर्म करने है यह चिंतन का विषय है।