Saturday, January 11, 2025

पराया धन क्यों कहलाए बेटी

आज नारी की सोई हुई चेतना जाग उठी है। शिक्षा के प्रचार प्रसार से उसमें ज्ञान व आत्मविश्वास का विकास हुआ है। अब वह एक बेजान गुडिय़ा नहीं, जिसको जैसे चाहो, नचा लो। सदियों से उसके सीने में दबी हुई विद्रोह की चिंगारियां सुलग उठी हैं। आज के पुरूष प्रधान समाज में उसने अपने अस्तित्व को कायम रख कर दिखा दिया है कि वह किसी से कम नहीं है।

अब माता-पिता भी बेटी के बालिग होते ही मंगलसूत्र का फंदा गले में डालने की बजाय उसके कैरियर को संवारने की ओर अधिक ध्यान देते हैं। वे उसे डॉक्टर, वकील, इंजीनियर आदि बनाने को प्रयासरत रहते हैं। हां, एक निश्चित समय के बाद वे उसके लिए उपयुक्त वर की तलाश अवश्य करते हैं व मिलते ही उसे शादी के बंधन में बांध देते हैं मगर ऐसा करके भी वे उसके दायित्वों से मुक्त नहीं हो पाते। वे लड़की को हर समय यही अहसास दिलाते हैं कि वे उसके हर दुख-सुख में उसके साथ हैं।

यह कहना कि लड़की पराया धन होती है व शादी के बाद-माता-पिता का घर उसका अपना घर नहीं रहता, ससुराल ही उसका सर्वस्व होता है, कहां तक उचित है। उसके व्यक्तित्व की नींव तो मायके से ही खड़ी की जाती है। वहीं वह पढ़-लिख कर किसी योग्य बनती है और अनेक घरेलू कार्यों में पारंगत होती है। मां-बाप ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। यहां वह सम्पूर्ण जीवन जीने के काबिल बनती है, उसी घर को पराया घर कहना उचित नहीं है।

फिर ससुरालजन भी तो उसे अपनी बेटी नहीं मानते। वे भी तो उसे परायी बेटी कह कर ही संबोधित करते हैं। फिर नारी किस घर को अपना घर कहे। क्या कभी उसे अपना घर नहीं मिलेगा। मां-बाप भी लड़की को यह अहसास क्यों नहीं दिलाते कि शादी के बाद भी मायका उसका घर है। वह जब चाहे वहां रह सकती है।

ससुराल वाले भी वैसे तो लड़की को परायी बेटी ही कहते हैं मगर उसे इस्तेमाल करने के लिए उसे अपना बना लिया जाता है। उस पर अपना सम्पूर्ण अधिकार मानते हुए वे उसे मायके भी अपनी इजाजत से ही जाने देते हैं।

नारी दो पाटों के बीच पिसती रहती है। आज नारी ने इतनी अधिक उन्नति कर ली है कि वह इन सब बातों को निराधार साबित कर चुकी है मगर कितनी लड़कियों को यह अधिकार मिल पाता है कि वह अपनी इच्छा से जहां चाहें रह सकें। आज भी एक-दो दिन मायके जाने के लिए उसे पति व अन्य सदस्यों की अनुमति लेनी पड़ती है। आखिर क्यों?

पुरूष को तो कहीं जाने के लिए किसी भी इजाजत की आवश्यकता नहीं होती, फिर नारी पर ही यह बंधन क्यों। इसके लिए उसे खुद ही आगे आने होगा, अपने प्रयासों से ही उसे इन मान्यताओं को तोडऩा होगा।
-भाषणा गुप्ता

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