Friday, November 22, 2024

एलोपैथी बनाम आयुर्वेद

सुप्रीम कोर्ट ने विगत मंगलवार 27 फरवरी को भ्रामक विज्ञापन प्रकाशित करने की आइएमए की शिकायत पर बाबा रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद को कड़ी फटकार लगाई है और अगले आदेश पारित होने तक उनके उत्पादों के विपणन विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगा दिया है। न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने नवंबर 2023 में तत्कालीन अदालत के यह आदेश देने के बावजूद एलोपैथिक दवाओं पर सीधे हमला करने वाले भ्रामक विज्ञापनों के सम्बन्ध में पारित किया गया था।
वस्तुत: यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट बनाम बाबा रामदेव से ज्यादा, आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की है। स्मरणीय है कि इसी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने अभी एक सप्ताह पहले आयुर्वेद को प्रशंसा की हद तक असरदार बताया था और मुक्तकंठ से उसकी प्रशंसा की थी। जब कोरोना के समय प्रधानमंत्री मोदी ने जस्टिस चंद्रचूड़ को आयुर्वेद अपनाने की सलाह दी थी और स्वयं चंद्रचूड़ ने माना कि वाकई उनको उसके प्रयोग से बहुत लाभ हुआ और कहा कि सबको आयुर्वेदिक तौर तरीकों को अपनाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं कि एलोपैथी अपने में कोई बुरी चीज नहीं अपितु इमरजेंसी में तो बहुत अच्छी चीज है। एलोपैथिक दवाओं का स्वयं में अपना एक बहुत बड़ा बाजार है जिसे यूरोप और अमेरिका का फिल्म माफिया चलाता है जो दुनिया के तीन सबसे बड़े माफियाओं में से एक है। इसी माफिया ने भारत में बनी कोरोना वैक्सीन का हद दर्जे विरोध किया था। इसी का कृपापात्र भारत में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन है जिसके कुछ सदस्यों को कुछ दवा माफिया अपनी दवाओं के अधिक प्रयोग पर तरह तरह से अनुगृहित करते रहते हैं।
व्यापारी अंग्रेज जो भारत में न सिर्फ सत्ता और लूट के इरादे से आये थे, वे अपनी सत्ता कायम रखने के लिए ईसाईयत के प्रसार प्रचार का भी काम करते थे। अंग्रेजो ने जब देखा कि भारत की आयुर्वेदिक चिकित्सा जो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति है, उसके सामने एलोपैथी अभी बच्ची है तो एलोपैथी को बढ़ावा देने के लिए 1940 में वे आयुर्वेद के खिलाफ एक कानून ले आये। उस कानून के तहत तत्कालीन 50 से ज्यादा बीमारियों को आयुर्वेदिक तरीके से ठीक करने का दावा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 1954 में नेहरू नीत तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी बिना किसी बदलाव के इसी कानून को वापिस स्वतंत्र भारत में लागू कर दिया जिसकी आड़ में आइएमए पतंजलि के विरुद्ध भ्रामक दावों का सहारा लेकर दो साल पहले कोरोना के समय सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया जिस पर अब सुप्रीम कोर्ट ने धमकी वाली यह टिप्पणी की है। बाबा रामदेव ने उस समय भी कहा था कि कुछ भी टिप्पणी या फैसला करने से पहले हमें भी पार्टी बनाया जाए, हम सारी मेडिकल रिसर्च, क्लिनिकल ट्रायल, डॉक्टर्स की टीम आदि की रिपोर्ट पेश करेंगे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया।
इसमें कोई शक नहीं है कि आइएमए जो फार्मा लॉबी का भारतीय आधार बनता जा रहा है, उसका काम न सिर्फ एलोपैथी का प्रचार प्रसार करना है बल्कि फार्मा इंडस्ट्री को भी भारत मे फैलाना है। ये लॉबी के साथ मिलकर काम करती लगती है? जैसे ये कोका कोला को कुछ नही कहेगी। उसे पीने के बाद आपके मसूड़ो में झनझनाहट होगी तो सेंसोडाइन बिकेगा। आपके दांत सड़ेंगे तो डेंटिस्ट लॉबी का फायदा होगा। आपका सुगर लेवल बढ़ेगा तो इन्सुलिन की बिक्री बढ़ेगी, आंत क्षतिग्रस्त होगी तो लॉबी की दवायें बिकेंगी, लिवर खराब तो फार्मा लाबी, किडनी खराब तो वही, इनसे आंखों में समस्या होगी, बाल झड़ेंगे और इन सब के कारण यदि आप मर रहे हैं तो पॉपुलेशन कंट्रोल वाली लॉबी तो है ही जिसको दुनिया से दवा के ट्रायल के नाम पर किसी भी देश की आबादी कम करनी है। अब इस श्रंखला में सुप्रीम कोर्ट भी जाने अनजाने सम्मिलित हो गया लगता है।
यहाँ यह कहने का आशय यह है कि कोई भी शारीरिक या मानसिक बीमारी यदि आती है या पैदा की जाती है तो उसका बाजारु पहलू भी पहले से निश्चित हो जाता है कि इससे कौन कमाएगा और यदि कोई आयुर्वेद थी यह कहता है कि हम इस बीमारी को जड़ से समाप्त करना चाहते हैं तो फिर आइएमए जैसे अग्रदूत तो उसके पीछे पड़ेंगे ही। रही बात भारत सरकार की तो भारत सरकार को इस माफिया से न सिर्फ स्वदेशी बनाम विदेशी रूप से लडऩा है बल्कि भारत मे भी ये ‘स्वदेशी प्रोफिट मेकिंग लॉबी उसी तरह काम करती है। भारत सरकार का आयुष मंत्रालय खोलना या हजारों करोड़ का ट्रेडिशनल मेडिसिन सेंटर खोल कर उसका उद्धघाटन डब्लूएचओ के मुखिया से गुजरात मे करवाना, जैसी कोशिशें इस एलोपैथिक फार्मा लॉबी को निश्चित रूप से पसन्द नहीं आती होंगी। ऊपर से मिश्रित अनाज से लेकर ऑर्गेनिक फार्मिंग का प्रचार हो या योग का प्रचार प्रसार जो स्वस्थ शरीर बनाये रखने का काम करते हैं, इसका प्रचार मोदी करे या रामदेव, यह भी इन लाबियों को बिल्कुल पसन्द नहीं आएगा क्योंकि इससे इनकी दूध-मलाई प्रभावित होती है।
हमें याद रखना पड़ेगा कि इन सबसे एक लम्बी लड़ाई लडऩी होगी। कदम दर कदम ‘डाटा Ó तैयार करने होंगे। सरकार हो या पतंजलि या डाबर, बैद्यनाथ उन्हें रिसर्च बेस्ड डाटा तैयार करना होगा जो दुनिया की किसी भी अदालत में सही साबित किया जा सके ताकि जब हम आयुर्वेद या उसकी पद्धति को दुनिया में स्थापित करें तो किसी भी देश के ऐसे आइएमए उसके खिलाफ कोर्ट न पहुंच जांए और जनता के मन में जिसे मानसिक रूप से आयुर्वेद और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के प्रति नफरती भावना से भर दिया गया है के मन में कोई संशय की भावना का अंकुर न उग पाए।
इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि एलोपैथी तुरंत आराम पहुंचाने वाली एक परखी हुई पद्धति है. यह कोई बुरी पद्धति नही है लेकिन उस पद्धति के पीछे खड़े कुछ दवा माफिया अपनी स्वार्थ सिद्धियों के लिए इसका कभी कभी जिस तरह से दुरुपयोग करते हैं, उसे उचित तो नहीं कहा जा सकता है? जिन्हें आपके जीने मरने की कोई परवाह नही?। अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं?। यहाँ तक कि यह फार्मा इंडस्ट्री अपने बजट का 40 प्रतिशत से अधिक तक सिर्फ अपनी मार्केटिंग पर खर्च करती है और 10 प्रतिशत भी मूल रिसर्च पर नही लगातीं।
इसमें भी कोई शक नहीं है कि बाबा रामदेव और उनके जैसे संस्थान भी अब सेवा भाव से हट कर ‘कार्पोरेट कल्चर पर उतर आये हैं और आकर्षक पैकिंग करके सस्ती दवाओं को मंहगी कीमतों पर बेचने के फार्मूले पर चलते लगने लगे हैं। धन्वंतरि, चरक, शुश्रुत, पतंजलि और उनके जैसे अनेक, महर्षियों के अथक प्रयासों के चलते हमें इस अमूल्य ज्ञान की प्राप्ति सम्भव हो सकी है जिससे हम रोगमुक्त रह सकें। इस अमूल्य धरोहर का अपने हितों में प्रयोग कर रही डाबर, वैद्यनाथ, श्री श्री और ऐसी सैकड़ों आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली कम्पनियों को भी इस आयुर्वेद और एलोपैथी के संघर्षकाल में दवाओं की गुणवत्ता बनाये रख कर उन्हें सस्ते दामों पर जनता के बीच कम दाम पर सेवाभाव से उतारना चाहिए ताकि किसी भी कारण आयुर्वेद और हमारे ऋषि महर्षियों के वर्षों के अनुसन्धान पर आधारित यह चिकित्सा पद्धति बदनाम न हो सके और वर्षों के दासत्व से निकल कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके।
-राज सक्सेना

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