चार धामों में कुंभ का आयोजन
हरिद्वार, नासिक, प्रयाग और उज्जैन में हर बारहवें वर्ष होने वाले कुंभ पर्व की प्राचीनता का अंदाजा वेदों में उल्लेखित मंत्रों से लगाया जा सकता है। अथर्ववेद में यहां तक कहा गया है कि कुंभ स्नान एक हजार अश्वमेघ यज्ञों और एक लाख पृथ्वी प्रदक्षिणा के बराबर हमारे पुराणों में भी कुंभ पर्व की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है।
प्राचीन इतिहास और महत्व
कुंभ मेले का सबसे प्राचीन और विस्तृत उल्लेख चीनी यात्री व्हेनसांग ने किया है, जिसमें उसने 644 ईस्वी में प्रयाग के कुंभ मेले का वर्णन किया है। नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने इन पर्वों को व्यवस्थित रूप दिया और साधुओं को दस वर्गों में विभाजित किया। यह परंपरा “दशनामी” के नाम से जानी जाती है।
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समुद्र मंथन और कुंभ की कथा
कुंभ पर्व की महत्ता से जुड़ी कथा के अनुसार देवताओं और दानवों ने समुद्र मंथन के दौरान अमृत कुंभ पाया और उस कुंभ को सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति ने हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में रखा। वहां अमृत की बूंदें छलकने से इन स्थानों पर कुंभ पर्व का आयोजन होने लगा।
ग्रहों की स्थिति और कुंभ
कुंभ पर्व का आयोजन ग्रहों की स्थिति पर निर्भर करता है। जैसे हरिद्वार का कुंभ तब होता है जब गुरू ग्रह कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में होते हैं। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी ग्रहों की विशेष स्थिति पर कुंभ का आयोजन होता है।
अर्ध कुंभ और धार्मिक एकता
हरिद्वार और प्रयाग में हर छः वर्ष बाद अर्ध कुंभ का आयोजन होता है। ये कुंभ पर्व धार्मिक और सांस्कृतिक एकता के प्रतीक हैं और इनका महत्व भारतीय संस्कृति में अपार है।
स्नान का महत्व और प्रतिस्पर्धा
कुंभ स्नान का विशेष महत्व होता है और इसमें विभिन्न साधु संगठनों में प्रतिस्पर्धा भी होती है। इन पर्वों के दौरान लाखों लोग स्नान का पुण्य लाभ लेते हैं और साधु-संन्यासी अपने अनुष्ठान करते हैं।
कुंभ की विशेष तिथियां
कुंभ पर्व का आयोजन एक महीने तक चलता है और इसमें पूर्णिमा और अमावस्या तिथियों पर स्नान का विशेष महत्व होता है, जिसे मुख्य स्नान और शाही स्नान कहा जाता है।
धार्मिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक
कुंभ पर्व भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक एकता के प्रतीक हैं। दूर-दूर से श्रद्धालु इन पर्वों में शामिल होते हैं और यह परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है।