नई दिल्ली। भारत को लगातार मालदीव ने एक के बाद एक दो झटके दिए हैं। पहले उसने अपने यहां तैनात भारतीय सैनिकों की वापसी की मांग माने जाने का दावा किया। और अब उसने भारत के साथ चार साल पहले हुए हाइड्रोग्राफ़िक सर्वे समझौते को रद्द कर दिया। ये समझौता 8 जून 2019 को हुआ था,जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के आग्रह पर मालदीव का दौरा किया था। इस सर्वे के तहत भारत और मालदीव को मिलकर मालदीव के इलाक़े में जल क्षेत्र, रीफ़, लैगून, सामुद्रिक लहरों और उसके स्तर का अध्ययन करना था।
आपको बता दें कि मोहम्मद मुइज़्ज़ु की प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ़ मालदीव पर चीन का काफी असर माना जाता है। राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान उनकी पार्टी ने ‘इंडिया आउट’ का नारा दिया था और कहा था कि वो मालदीव में भारतीय सैनिकों की मौजूदगी ख़त्म करेंगे। विश्लेषकों का कहना है कि राष्ट्रपति बनने के बाद उनके ऐसे फै़सलों से लग रहा है कि वो ‘पूरी तरह चीन के असर में ये कदम उठा रहे हैं। इससे पहले मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़े मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद इब्राहिम सोलिह ने ‘इंडिया फर्स्ट’ का नारा दिया था। मुइज़्ज़ु का रुख़ इससे बिल्कुल उलट है। हाइड्रोग्राफ़िक सर्वे समझौता रद्द करने के मालदीव के फै़सले के बाद अब ये कहा जा रहा है कि इस क्षेत्र में चीन की तुलना में भारत का रणनीतिक असर घटने के आसार बढ़ गए हैं।
इस बारे में मालदीव सरकार ने एक बयान जारी कर कहा, “मालदीव रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आने वाली कई चीज़ों का तुर्की से आयात करता है। मालदीव अपने यहां तुर्की के निवेश को बढ़ावा दे रहा है। साथ ही वो अपने यहां से निर्यात में भी तुर्की को तवज्जो दे रहा है। हाल के दिनों में मालदीव से तुर्की जाने वाले छात्रों और पर्यटकों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है।
लतीफ़ वहां चीन की अगुआई वाले चाइना-इंडिया फ़ोरम ऑन डेवलपमेंट को-ऑपरेशन की बैठक में हिस्सा लेने पहुंचे थे। जबकि ऐसे ही एक और फ़ोरम, इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन के प्रति मालदीव का रुख़ इतना सकारात्मक नहीं रहा था। मालदीव के उप-राष्ट्रपति ने चाइना-इंडिया फ़ोरम ऑन डेवलपमेंट को-ऑपरेशन की बैठक में कहा कि उनके देश के लिए चीन की भूमिका अहम रही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि मालदीव के नेताओं की तुर्की और चीन की यात्रा, भारत के हितों के लिहाज से सकारात्मक संकेत नहीं है. क्योंकि चीन और तुर्की, दोनों भारत की ज़मीनी और समुद्री सुरक्षा ज़रुरतों को लेकर विरोधी रुख़ अपनाते रहे हैं।
वही नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीनी अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफे़सर अरविंद येलेरी कहते हैं, “1996-97 से अंतरराष्ट्रीय राजनीति, ब्लू इकोनॉमी या ओशन इकोनॉमी (समुद्री अर्थव्यवस्था) पर तेज़ी से केंद्रित हुई है। हिंद या प्रशांत महासागर से भारत की नज़दीकी की वजह से समुद्र से जुड़ी सामरिक रणनीति में भारत की भूमिका बढ़ गई है। वो कहते हैं, “इसके बाद से भारत ने दक्षिण चीन सागर, अरब सागर और हिंद महासागर में अपने सामरिक हितों पर ध्यान देना शुरू किया है। लिहाज़ा मॉरीशस, मालदीव और सेशेल्स जैसे देशों में भारत के संपर्क बढ़े हैं। सर्विलांस, ईंधन सप्लाई और कई और चीज़ों को लेकर यहां भारत के हित हैं। पिछले 25-30 साल से भारत ने यहां ध्यान देना शुरू किया है।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के नेल्सन मंडेला सेंटर फ़ॉर पीस एंड कॉन्फ़्लिक्ट रेज़ोल्यूशन में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉक्टर प्रेमानंद मिश्रा का कहना है कि आर्थिक और सामरिक लिहाज़ से भारत के लिए मालदीव की अहमियत बहुत ज्यादा है। इसलिए मालदीव में जब भी कोई नई सरकार आती है तो भारत इस कोशिश में रहता है कि वो सरकार कुछ हद इसके पाले में रहे।
अरविंद येलेरी कहते हैं, “चीन ने भी हिंद महासागर में अपना असर बढ़ाने पर ज़ोर लगाया है. वो दक्षिण चीन सागर से निकल कर अब यहां अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है। कहते हैं, “मालदीव में जो राजनीतिक परिवर्तन हुआ है, वो चीन के लिए काफी सकारात्मक संभावनाएं लेकर आया है। लेकिन इसका नकारात्मक असर भारत पर पड़ेगा। अगले-चार पांच साल के दौरान ये पुख्ता तौर पर सामने आएगा। भले ही भारत के सैनिक मालदीव में बहुत कम थे लेकिन उनका वापस लौटना उसके लिए चिंता की बात है।
अरविंद येलेरी ने कहा कि ज़रूरी नहीं भारत इन छोटे देशों को पाले में करने के लिए जी-तोड़ कोशिश करे। श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों में चीनी निवेश का विरोध होता रहा है। हालांकि भूटान और मालदीव में चीन अपना असर मज़बूत करने में सफल रहा है। कहा कि भारत की नीति इस मामले में ये हो सकती है कि वो इन देशों को चीन के साथ रिश्तों की क़ीमत समझने दे। क्योंकि कई सारे देशों पर अब चीन की वित्तीय मदद बोझ बन गई और वो अब इस ‘जाल’ से निकलना चाहते हैं।
येलेरी ने कहा कि “देखा जाए तो मालदीव भौगोलिक रूप से भारत के ज्यादा नज़दीक है. दूसरे वहां की आबादी की संरचना भी भारतीय आबादी की संरचना के ज्यादा नज़दीक है। चीन की आबादी के स्वरूप और संरचना से ये मेल नहीं खाता। इसलिए मालदीव को ये समझना होगा कि उसकी ये खूबियां चीन से मेल नहीं खाती।
वहीं प्रेमानंद मिश्रा ने कहा कि “मुइज़्जु़ शुरू से भारत विरोधी रणनीति को लेकर चले हैं और उनके फै़सलों में ये दिख भी रहा है। भारतीय सैनिकों की वापसी या हाइड्रोग्राफ़ी समझौता रद्द करना चीन की नीतियों का समर्थन करने जैसा है। इसका उल्टा असर भारत पर पड़ सकता है.”कहा कि मालदीव का इस्लामी विचारधारा की ओर झुकाव भी दिखता है. राष्ट्रीय हित पर किसी पार्टी या किसी नेता की विचारधारा का असर नहीं होना चाहिए. लेकिन विदेश नीति में कभी-कभी ये देखा जा सकता है. ईरान जैसे मामले में ये देखा जा सकता है। प्रेमानंद ने कहा कि “इसकी काट क्या है ये देखना होगा. लेकिन फिलहाल जब तक वहां मुइज़्ज़ु रहेंगे तब तक वहां इस्लामिक झुकाव दिख सकता है. मालदीव की आर्थिक ज़रूरतें ऐसी हैं जिसमें चीन की दखलअंदाजी बढ़ने की संभावना ज्यादा है. इसका भारत के रक्षा क्षेत्र, अर्थव्यवस्था और सामरिक नीति पर असर पड़ना तय है. लिहाज़ा भारत को अपनी नेबरहुड पॉलिसी में इन चीजों पर गौर करना होगा। कहा कि जब तक मालदीव में मुइज़्ज़ु सरकार है और वहां चीन का दखल कम नहीं होता, तब तक भारत ‘इंतजार करो और देखो’ की नीति पर चले। भारत यहां अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभाव पैदा करने की कोशिश करे। चूंकि हिंद महासागर और इससे सटे इलाक़ों में अमेरिका और दूसरी ताकतें भी मौजूद हैं। इसलिए भारत अमेरिका के ज़रिये भी मालदीव के साथ समीकरणों को प्रभावित करने की कोशिश कर सकता है। मालदीव की जिस तरह से चीन पर निर्भरता बढ़ती जा रही है, उससे उसकी संप्रभुता ख़तरे में पड़ सकती है। ऐसे में मालदीव के विपक्षी दलों को इस मुद्दे को उठाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
मालदीव में बुनियादी सुविधाओं के विकास और अन्य कई विकास परियोजनाओं के लिए क़र्ज़ और सहायता के रूप में भारत और चीन ने अरबों डॉलर दिए हैं। हिंद महासागर में मालदीव जहां पर है, वह जगह रणनीतिक रूप से बेहद अहम मानी जाती है। खाड़ी देशों से तेल लाने वाले जहाज़ यहीं से होकर गुज़रते हैं। मालदीव लंबे समय तक भारत के प्रभाव में रहा है। मालदीव में मौजूदगी से भारत को हिंद महासागर के एक प्रमुख हिस्से पर नज़र रखने की क्षमता मिल जाती है। 2016 में मालदीव ने चीन को अपना एक द्वीप महज़ 40 लाख डॉलर में 50 साल के लिए लीज़ पर दे दिया था। मालदीव ने चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना का भी खुलकर समर्थन किया है।