Sunday, September 8, 2024

कहानी: सुखान्त

गाड़ी करीब आठ बजे इलाहाबाद स्टेशन पहुंची। मेरा प्रथम श्रेणी के डिब्बे में रिजर्वेशन था और रात में अच्छी नींद आ गई थी। इसलिए तबीयत खूब तरोताजा थी। मैं नहा-धोकर बिल्कुल तैयार हो गया था। मैंने पिताजी का लिखा हुआ पत्र और पता हिफाजत से पैंट की जेब में रखा और अपना सूटकेट क्लॉक रूप में रखवाकर बाहर आ गया, क्योंकि मुझे दो बजे कोलकाता जाने वाली गाड़ी पकडऩी थी।
मेरे पास पर्याप्त समय था। अत: मैं अलोपीबाग के लिए एक रिक्शा लेकर चल पड़ा। रास्ते में संगम स्नान हेतु आने-जाने वालों की काफी भीड़ थी। इसलिए वहां पहुंचते-पहुंचते साढ़े नौ बज गए। मकान का नम्बर और नेमप्लेट देखकर मैंने रिक्शा छोड़ दिया और इत्मीनान से घण्टी का बटन दबाया।
मकान में लगभग सन्नाटा-सा था। दुबारा घण्टी बजाने पर बीस-बाईस साल की जिस लड़की ने दरवाजा खोला, उसे देखकर मैं अपना होश ही खो बैठा। लड़की दरवाजे से लगकर खड़ी हो गई। घरेलू पोशाक में भी वह बहुत स्मार्ट और खूबसूरत लग रही थी। उसने सलवार के साथ हल्के नीले रंग का लम्बा कुर्ता पहन रखा था। बालों की एक-दो लटें उसके गोरे मुख पर इस प्रकार झूल रही थीं, जैसे चन्द्रमा का अमृत प्राप्त करने के लिए काले नाग झपट रहे हों। उसका मुख कुछ लम्बाकार होते हुए भी गौरे वर्ण की चमक से भरा लगता था। आंखें बड़ी और झील की तरह गहरी, जिनमें डूब जाने पर किसी का उबरना मुश्किल हो।
मुझे इस प्रकार अवाक् अपनी ओर ताकता हुआ देखकर उसे अच्छा नहीं लगा। यह उसके स्वर से स्पष्ट हो गया। उसने पूछा, कहिए, आपको किससे मिलना है?
उसके प्रश्न से मैं अपने में वापस लौट आया और कहा- जी, रमेशचन्द्र जी यहीं रहते हैं?
कौन, पापाजी, वे तो अभी-अभी दफ्तर चले गए हैं, आज उनके दफ्तर में ऑडिट था। इसलिए जल्दी चले गये। आपको जरूरी काम हो, तो दफ्तर चले जाइए। कहते हुए वह किवाड़ बन्द करने को उद्यत हुई।
मैंने उसे रोकते हुए कहा- ‘आपकी मां कहां हैं?
‘नहीं और कोई नहीं है। माँ गंगा नहाने गई है और बबलू स्कूल। मुझे भी बारह बजे कॉलेज जाना है।
‘तब तो आपको अभी कॉलेज के लिए काफी देर है। तब तक आपकी मां भी लौट आएंगी।
‘हां, लेकिन आपका मतलब?
‘मतलब कुछ नहीं। मैं कुछ देर आपसे बात करना चाहता था। पर आपने तो शिष्टता के नाते बैठने तक के लिए नहीं कहा।
‘माफ कीजिए। इस वक्त मुझे फुर्सत नहीं है। जब पिताजी हों, तब आइए। ‘खैर कोई बात नहीं। आपको शायद शक है कि मैं कोई चोर-उचक्का या उठाईगीर हूं। लेकिन क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं?ï उसी में संतोष कर लूंगा।
‘यह सब चालाकी रहने दीजिए। मैंने आप जैसे बहुतेरे देखे हैं। मैं विभा हूं, कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं। अब यहां से  दफा हो जाइए। नहीं तो मैं पुलिस को फोन करती हूं। ‘लड़की ने गुस्से में फनफनाते हुए फटाक से किवाड़ बन्द कर लिए।
मैं कहता ही रह गया कि ‘सुनिए तो…..सुनिए तो, लेकिन उसने नहीं सुना फिर मुझे पिताजी के पत्र की याद आई। मैं चिल्लाया यह पत्र तो ले लीजिए।
उसने बिना किवाड़ खोले तीखे स्वर में कहा- ये पत्र-वत्र अपने ही पास रखिए। किसी दूसरी के काम आएगा।
‘यह आपके पिताजी का है, आपका नहीं। उन्हें दे दीजिएगा।
‘यह सब लटकेबाजी मैं खूब जानती हूं। कहीं और आजमाइएगा।
‘लेकिन आप देख तो लीजिए। पत्र के बाद मैं एक क्षण न रुकूंगा।
‘अच्छा लाइए। कहते हुए विभा ने किवाड़ों की झिरी से अपना हाथ बढ़ाया, जैसे वह किसी अप्रत्याशित हादसे के लिए पूरी तरह सावधान हो।
मैंने पिताजी का पत्र तुरन्त उसके हाथ पर रख दिया और ‘अच्छा नमस्कार  कहकर वहां से तेजी से लौट पडा। अगले चौराहे से रिक्शा लेकर मैं किसी अच्छे होटल की तलाश में निकल पड़ा। क्योंकि तब तक पेट भूख से कुलबुलाने लगा था। गर्मी के कारण मैंने बहुत हल्का नाश्ता किया था। केवल टोस्ट और चाय। मुझे अपनी होने वाली ससुराल से ऐसी आशा नहीं थी। लेकिन मेरा काम हो चुका था और अन्दर ही अन्दर मैं बहुत खुश था। मैंने बड़ी रुचि से भोजन किया और अप्रत्याशित घटनाचक्र पर मन में हंसता रहा। फिर मैंने पिताजी को तार भेजा। ‘मुझे विभा पसन्द है। आप शादी तय कर लें।
कोलकाता के लिए बारह बजे भी एक ट्रेन थी। मैं उसी से रवाना हो गया। वहां मुझे कार्यवश एक सप्ताह रुकना था। असल में विभा के पिता रमेशचन्द्र कई बार मेरे घर आकर शादी के लिए आग्रह कर चुके थे। पिताजी को भी सब बातों में संतोष हो गया था। केवल मेरी लड़की पसन्द की बात थी। कोलकाता जाने का कार्यक्रम अकस्मात बना, इस कारण रमेशचन्द्र को पूर्व सूचना नहीं दी जा सकी। पिताजी ने रास्ते में इलाहाबाद में एक दिन रुकने का निर्देश देकर रमेशचन्द्र के नाम पत्र दे दिया था।
शाम को रमेशचन्द्र जब दफ्तर से लौटे, तब उनकी मेज पर मेरे पिताजी का पत्र रखा था। उन्होंने लिफाफा खोलकर पत्र पढ़ा।
भाई रमेशचन्द्र जी,
आपके आग्रह और परेशानी देखकर मैं चि. प्रकाश को इस पत्र के साथ आपके पास भेज रहा हूं। वह कोलकाता जा रहा है, सो रास्ते में कुछ समय आपके यहां रुककर सौ. कां. विभा को देख लेगा। शेष यहां सब कुशल है। आशा है कि आप सपरिवार सानन्द हैं।
हितैषी- कुलभूषण
पत्र से स्पष्ट था कि प्रकाश उनके घर आया था। उन्होंने पत्नी को आवाज दी। विभा की मां चाय का प्याला लेकर वहां आ ही रही थीं। रमेशचन्द्र ने पूछा ‘यह पत्र कौन लाया था?
विभा की मां ने उत्तर दिया- ‘उस वक्त मैं घर पर नहीं थी। कोई लड़का विभा को यह पत्र दे गया था।
रमेशचन्द्र के माथे पर चिन्ता की रेखाएं उभर आयीं। वे कई महीनों से इस संबंध के लिए प्रयत्नशील थे। लड़के ने बी.ई. करने के बाद अपनी फैक्ट्री लगाई थी। देखने में स्वस्थ एवं सुन्दर और घर भी अच्छा खाता पीता।
ऐसा बहुत कम होता था। फिर उन जैसे परिवार के लिए तो बहुत मुश्किल थी, जो ऊंचा दहेज नहीं दे सकते थे। सब ठीक-ठाक हो गया था, केवल लड़के को लड़की पसन्द करनी थी और इसी बात पर शादी होने या न होने का सारा दारोमदार था। अगर उन्हें पहले से सूचना होती तो वे किसी भी स्थिति में छुट्टी ले लेते। अब पता नहीं प्रकाश ने क्या सोचा हो? वे पत्नी से बिगड़कर बोले- तुम्हारा तो बस जब देखो तब गंगा स्नान बना रहता है। इतनी मेहनत से कुलभूषण तैयार हुए थे और तुम्हारे गंगा स्नान ने ही सब गुड़ गोबर कर दिया।
‘आखिर हुआ क्या हैï? कुछ बताओगे भी।  विभा की मां ने पूछा।
‘अब होना क्या है? आगरा से लड़की देखने प्रकाश आया था।
‘लेकिन उसे रुकना तो चाहिए था। पहले से कोई खबर भी तो न थी, तो इसमें हमारा क्या कसूर है?
‘बात यहां कसूर की नहीं है। काम होने की है। लेकिन यह भी सही है कि प्रकाश को रुकना चाहिए था या मुझे ही फोन कर दिया होता। विभा को बुलाओ। उसी से मालूम पड़ेगा कि क्या बात हुई?
विभा थोड़ी देर पहले कॉलेज से लौटी थी। आवाज देते ही वह आ गई।
रमेशचन्द्र ने पत्र की ओर संकेत करके पूछा- ‘यह पत्र कौन लाया था?
विभा ने सहजता से कहा-‘ एक लड़का दे गया था।
‘लड़का? वह कैसा था?
‘सूट पहने हुए कोई नौजवान था।
‘तो मुझे फोन करके बुला क्यों नहीं लिया?
‘कोई बात होती तो बुला लेती। मैं ही ऐसे उल्लू के पट्ïठे से निपटने के लिए काफी थी। एक ही लताड़ में बच्चू चलते बने। क्या लिखा है  चिट्ïठी में?
विभा की बात सुनकर रमेशचन्द्र ने अपना माथा ठोंक लिया और पत्र उसके हाथ में थमाकर बोले- ‘लो देखो, क्या लिखा है इसमें? विभा ने उसे पढ़कर एक लंबी सांस ली। और चुप रह गई। विभा की मां एक बारगी अपने पति की और देखती रह गई। ‘अब क्या होगा, यही प्रश्न उनके मन में बार-बार घुमड़ रहा था। रमेशचन्द्र ने ही कहा- अब बेकार चिन्ता करने से क्या होगा। मैं स्वयं ही कुलभूषण के पास जाकर स्थिति को देखता समझता हूं।
रमेशचन्द्र को देखते ही कुलभूषण ने स्मित हास्य से उनका स्वागत किया और बोले-‘आखिर क्यों न हो। लड़की वाले हो न, जरा भी चैन नहीं पड़ी।  रमेशचन्द्र ने धड़कते दिल से पूछा- ‘अब क्या विचार है?  विचार क्या होना है। शादी का मुहूर्त निकालिए।
बेटे को लड़की पसन्द है। कहते हुए उन्होंने आया हुआ तार रमेशचन्द्र के सामने रख दिया। रमेशचन्द्र ने देखा तार में लिखा था-‘मुझे विभा पसन्द है। आप शादी तय कर लीजिए।Ó
डॉ. परमलाल गुप्त – विभूति फीचर्स

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