वन संपदा हमारे जीवन में कुदरती उपहार है। इसलिए इसका संरक्षण करना मानव का पहला कर्तव्य है। राष्ट्रीय वन शहीद दिवस पर इस पर चिंतन करना जरूरी हो जाता है। यह दिवस उन वीरों को समर्पित होता है, जिन्होंने भारतीय जंगलों और उसमें रहने वाले तमाम बेजुबान वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए खुद को मिटा दिया। यह खास दिन हिंदुस्तान में सालाना 11 सितंबर को मनाया जाता है। वर्ष 2013 में केंद्रीय पर्यावरण, वन एंव जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने विशेष रूप से इस तिथि को चुना था। इसे 1730 में हुए ऐतिहासिक ‘खेजरली नरसंहार के साथ भी जोड़ा जाता है। ताकि लोग उस घटना को याद कर सकें। खेजड़ली नरसंहार भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना है जिसे कोई भूल नहीं सकता। घटना बिश्नोई समुदाय से जुड़ी है जिनके सदस्यों ने मारवाड़ साम्राज्य में पेड़ों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी थी। उनके 363 सदस्यों ने महाराजा अभय सिंह राठौर के आदेश पर खेजड़ी के पेड़ों को कटने से बचाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। पेड़ों के प्रति उनका ऐसा बलिदान, जिसे सुनकर लोगों की आज भी रूह कांप उठती है।
वनों की मौजूदा स्थिति पर गौर करें तो करीब एक तिहाई जंगली हिस्सा इंसानों ने अपनी जरूरतों के लिए रौंद दिया है। भारत में वनों और वृक्षों का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल अब 7,13,789 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें 2.91 प्रतिशत क्षेत्र में वृक्ष की बहुतायत है। आज का खास दिन जनमानस को वन संपदा और जंगली जानवरों की रक्षा के लिए जागरूक करने को समर्पित है, क्योंकि जिस हिसाब से वनों की कटाई और जानवरों की तस्करी हो रही है, उससे लगता है कि आने वाली पीढिय़ां कहीं इन कुदरती उपहारों से वंचित न हो जाएं। तभी ये दिवस हमारे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्व की तरह मार्मिक याद दिलाता है। साथ ही उन वन रक्षकों, रेंजरों और अधिकारियों-कर्मचारियों को श्रद्धांजलि भी देता है जो भारतीय वनों के संरक्षण-संरक्षण के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर चुके हैं और कर रहे हैं।
सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो जंगलों से करीब 7,204 मिलियन टन कार्बन स्टॉक अर्जित होता है जिसमें बीते 3 वर्षों में 79.4 मिलियन टन की वृद्धि दर्ज हुई है। कार्बन स्टॉक में वार्षिक वृद्धि 39.7 मिलियन टन बताई गई है। ये तब है जब कई राज्यों में वन सिमट गए हैं। दुख इस बात का है कि वनीय क्षेत्र में मानवीय हिमाकतें धड़ल्ले से जारी हैं, उन्हें रोका जाना चाहिए। क्षेत्रफल के हिसाब से, मध्य प्रदेश ही वन का सबसे बड़ा क्षेत्र है। इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र आते हैं। फिर शीर्ष पांच राज्यों में मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर और नगालैंड शामिल हैं। ये राज्य आज भी वन संपदा से लबरेज हैं। देश के यूटी राज्य तो वनहीन हैं। दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे प्रदेशों में जंगलों का नामोनिशान तक नहीं हैं।
भारत के टाइगर रिजर्व, कॉरिडोर और शेर संरक्षण क्षेत्र में जिन तकनीकों से वनावरण किया जा रहा है, ये तकनीक अभी तक सफल रही है। देश में वन और वृक्ष संसाधनों पर बनी पुरानी नीतियों, योजनाओं को दीर्घकालिक प्रबंधन में तब्दील करके नई धार देने की आवश्यकता है। वनों की रक्षा डिजिटल और आधुनिक किए जाने की दरकार है। मानव जीवन में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका और उसकी सुरक्षा कैसे की जाए, इसकी आज ज्यादा से ज्यादा जागरुकता फैलाने की दरकार है। केंद्रीय वन मंत्रालय द्वारा आज विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों और सामाजिक संगठनों के लिए जो कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे, उनमें लोगों को बताना चाहिए कि उनके अभियान से आमजन कैसे जुड़े और कैसे अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करें, क्योंकि बिना जागरुकता लाए, सफलता नहीं मिल सकती।
गांव-देहातों की पाठशाला, स्कूल, कॉलेज और सामुदायिक केंद्रों में वनों के महत्व, वन्यजीव संरक्षण और वन शहीदों द्वारा किए गए बलिदान के विषय में युवा पीढ़ी को नियमित रूप से शैक्षिक कार्यक्रम, सेमिनार और कार्यशालाओं के जरिए जागरूक करते रहना चाहिए। मात्र एक दिनी जागरूक कार्यक्रम से बात नहीं बनने वाली। सरकारी स्तर पर पौधरोपण अभियान तो पूरे साल ही चलते रहना चाहिए। हम सभी को अपने बच्चों के साथ प्रकृति से जुडऩे, उसकी सुंदरता को करीब से निहारने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्व पर विचार करने के लिए नजदीकी वन, राष्ट्रीय उद्यान या वन्यजीव अभयारण्य में साल में किसी एक दिन जरूर जाना चाहिए।
-डॉ. रमेश ठाकुर