मनीषी सदा से ही सत्संग का महत्व बताते आये हैं। स्वाध्याय भी सत्संग है। स्वाध्याय से आप पवित्र ग्रंथों और ऋषियों की वाणी का सत्संग कर रहे होते हैं।
ओइम् का जाप वेद उपनिषद और छह शास्त्रों का एकाग्रता से किया पाठ स्वाध्याय कहलाता है। श्रीमद् भागवत गीता का पाठ भी स्वाध्याय की श्रेणी में आता है। इसके साथ ही सदा अपने जीवन की घटनाओं पर दृष्टि रखना कि मैं क्या कर रहा हूं, कहीं मैं धर्म विरूद्ध आचरण तो नहीं कर रहा हूं, नित्य आत्म विश्लेषण करना भी स्वाध्याय है।
जब आप धर्मग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं, तो मानो आप जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए ईश्वर और ऋषियों से आप वार्तालाप कर रहे हैं। इन पवित्र ग्रंथों का पाठ करते समय आप परमपिता परमात्मा के समीप बैठे हैं, ऋषियों का सत्संग कर रहे हैं। ऐसे में क्या पूरी एकाग्रता और श्रद्धा से आप उनकी बात न सुनेंगे? निश्चय ही सुनेंगे। ऐसी भावनाओं से किया गया स्वाध्याय आपको सन्मार्ग दिखायेगा।
पूर्ण एकाग्रता, श्रद्धा से किया गया स्वाध्याय समस्त पुण्य कर्मों से, सभी प्रकार के दानों से, यशो से किसी प्रकार भी लघुतर नहीं मानना चाहिए।