जिसका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो चुका है, मरणासन्न है, अन्तिम श्वास ले रहा है, चिकित्सक भी मौन हो चुके हैं, जीवन बचाने की आशा छोड़ चुके हैं, ऐसा मृत्यु शैया पर पड़ा रोगी भी मरना नहीं चाहता। लाशें भी जिंदा होना चाहती हैं।
प्रकृति का यह मृत्यु रूपी परिवर्तन किसी को पसंद नहीं। यद्यपि यह सभी जानते हैं कि यह शरीर अवश्य ही छूटेगा। प्रलय तक यह रहने वाला नहीं है। फिर भी ऐसे कर्म नहीं कर रहा है कि यह शरीर छूटे तो कष्ट न हो, आने-जाने के झंझट से छुटकारा ही मिल जाये।
प्रभु की व्यवस्था के अनुसार मृत्यु प्रत्येक की आयेगी। संसार ऐसे ही चलता रहेगा। यह संसार प्रभु का बगीचा है। इसकी सुन्दरता बनी रहे, इसलिए कांट-छांट जरूरी है। किसी भी बगीचे में वही पेड़-पौधे, फूल-पत्ते ज्यौ के त्यौ बने रहे, उनकी कांट-छांट न की जाये, पुराने निकालकर नये न लगाये जाये तो बगीचा बगीचा न रहेगा, जंगल बन जायेगा। उसकी ओर देखने को मन न करेगा।
कांट-छांट होती रहे, पुराने, सड़े-गले, पुष्प हीन, फल हीन, ठूंठ, अनावश्यक पौधे निकाल दिये जाये। उनके स्थान पर नये सुगन्धित नव जीवन और नव चेतना से ओत-प्रोत पौधे लगाये जायेंगे, तो सबको अच्छा लगेगा। इस संसार रूपी उपवन का सौंदर्य इसी प्रकार बना रहे, इसलिए प्रभु ने जीवन के साथ मृत्यु को भी अनिवार्य बना दिया है।