विभिन्न सम्प्रदाय और उपासना को पद्धति अलग-अलग होने के बावजूद कोई भी, कभी भी, कहीं भी और किसी प्रकार से भी अपने इष्ट, अपने आराध्य का नाम ले सकता है, उसका ध्यान और सुमरण कर सकता है, उसमें खो सकता है, उसे समर्पित हो सकता है, अपने द्वारा किये गये पापों के लिए उनसे क्षमा-याचना कर सकता है।
इसमें किसी प्रकार की कोई समस्या अथवा बाधा नहीं है। परमात्मा सबकी सुनता है बशर्ते कि हमारे भीतर उसे सुनाने की पात्रता हो, परन्तु सच्चाई यह भी है कि ईश्वर के दरबार में हमारी प्रार्थना और हमारी याचना तभी स्वीकार होती है, जब हम अपनी क्षमता के अनुसार दूसरों की प्रार्थना स्वीकार करते हैं, दूसरों को अपने प्रति की गई त्रुटियों को क्षमा कर भूल जाते हैं।
प्रभु बड़ा ही दयावान है वह हमारी असंख्य त्रुटियों को क्षमा करता है यदि हम भी क्षमा करने का दिव्य गुण धारण कर लेते हैं तो वह हमें क्षमा करने में उदार हो जाता है। यह बात सभी को ध्यान में रखनी चाहिए कि जो किसी को क्षमा नहीं कर सकता है क्षमा मांगने का अधिकारी भी नहीं हो सकता। दूसरों की न्यायोचित प्रार्थना को स्वीकार कर अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार उनकी सहायता करना और क्षमा करना हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए। तभी हम ईश्वर की कृपाओं और वरदानों की पात्रता प्राप्त कर सकते हैं।