हम प्रार्थना में कहते हैं ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव परमपिता परमात्मा को पिता भी कहा गया है और माता भी। हमने उसे देवी रूप में भी स्वीकार किया है। हम सभी इसी शक्ति के व्यक्त रूप हैं, जबकि वह स्वयं अव्यक्त रूप हैं। हम सभी इस पराशक्ति को जननी के रूप में जानते हैं और हमारी जैविक माता के रूप में भी यही हमें दर्शन देती है।
योगियों ने इसी पराशक्ति को कुंडलिनी शक्ति कहा है। वैष्णवों ने लक्ष्मी, शैवो ने गौरी और अम्बा कहा है। सत्य यह भी है कि ईसाईयों ने इसे ‘मेरी कहा है। यह शक्ति ही समस्त जगत का मूल है। यही मनुष्य की देह में मूलाधार चक्र में है और यही शक्ति सारे ब्रह्मांड की सृजन कर्ता भी है।
इसी कारण शक्ति की पूजा की जाती है। माता जननी है, जीवनदायिनी है तभी तो आशीष देती है। किसी निर्दोष को दंडित नहीं करती। माता के भीतर अनन्त दया और क्षमा की शक्ति होती है। संतान दोषी हो सकती है, पूत कपूत हो सकता है, किन्तु माता कुमाता नहीं होती।
माता को अपने सारे बच्चे प्रिय होते हैं, परन्तु बच्चों का भी कर्तव्य बनता है कि वह मां की अपेक्षाओं पर खरा उतरे। माता और उसकी सन्तान में गहरा सम्बन्ध होता है। पिता की तुलना में मां अधिक स्नेहमयी होती है। इसी कारण हमें उस पराशक्ति को मां के रूप में मानना अधिक सुविधाजनक रहता है।