प्रत्येक प्राणी किसी न किसी का होकर रहता है। कोई विभक्त होकर अनेक का रहता है और कोई भक्त होकर एक का। जिसको भगवान का होकर रहना है उसके लिए उसका भक्त होना अनिवार्य है, जो भगवान का भक्त हो जाता है उसके बिना उसे चैन नहीं पड़ती। उसमें प्रभु प्राप्ति की व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है।
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व्याकुलता वह अग्रि है, जो अनेक दोषों को भस्म कर देती है। जब पूर्ण निर्दोषता आ जाती है तो व्याकुलता नित्य जीवन और नित्य आनन्द में विलीन हो जाती है। फिर वियोग का भय और संयोग की आसक्ति शेष नहीं रहती है। ‘मैं भगवान का हूं’ यह वाक्य कहने में जितना समय लगता है, उससे भी कम समय सद्भावपूर्वक उनका होने में लगता है। मैं भगवान का हूं यह स्वीकृति होते ही सहज प्रेम उत्पन्न होकर भक्त को भगवान से अभिन्न कर लेता है।