हमारी समस्याओं का समाधान हमारे भीतर ही है। जब तक हम अपने अन्तर को प्रकाशित कर उसके आलोक में अपने आप को नहीं ढूंढेंगे तब तक मंजिल को नहीं पा सकेंगे। ऐसा करने पर ही हम अपने आप को देख पायेंगे। तभी हमारे ज्ञान चक्षुओं पर पड़ा आवरण हट सकेगा। उपभोग की जाने वाली प्रत्येक वस्तु नीति और न्यायपूर्वक उपर्जित धन से ही प्राप्त होनी चाहिए। मन की पवित्रता के लिए धन की शुद्धि भी आवश्यक है। केवल शरीर के प्रति आसक्ति तो है, पर मन को ओर ध्यान न दिया जाये तो मन निर्मल होगा कैसे? मन को तो प्रयास करके भी निर्मल रख पाना वैसे ही कठिन कार्य है और इस विषाक्त परिवेश में यह निरन्तर साधना के द्वारा ही सम्भव हो पायेगा। मैले मन में तो प्रभु भी वास नहीं करते, मन निर्मल नहीं होगा तो प्रभु चिंतन भी नहीं हो पायेगा। जिस प्रकार स्वस्थ रहने के लिए शरीर की स्वच्छता आवश्यक है, उसी प्रकार प्रभु सुमरिन के लिए मन की स्वच्छता अति आवश्यक है। जिसका मन निर्मल हो गया उसे प्रभु का साक्षात्कार भी सरलता से हो जायेगा।