यह विचार कहता है कि मनुष्य अक्सर अपनी बाहरी सुंदरता को ही महत्व देता है। वह दर्पण में बार-बार अपने चेहरे को देखकर संतोष पाता है और मानता है कि यही असली सुंदरता है। लेकिन असली सुंदरता तो भीतर होती है—हृदय और चरित्र में। अगर व्यक्ति अपने भीतर झाँकता और अपने मन में छिपे राग, द्वेष, ईर्ष्या, असत्य और बेईमानी को देखता, तो उसे समझ आता कि बाहरी रूप से सुंदर होना ही पर्याप्त नहीं है।
पाठ यह भी बताता है कि मनुष्य अक्सर सत्य और असत्य में भेद नहीं कर पाता या जान-बूझकर असत्य को सही साबित करने की कोशिश करता है। वह गिरगिट की तरह परिस्थितियों और लोगों के सामने अपना रंग बदलता है और दिखावा करता है। इस प्रकार, वह स्वयं और दूसरों को भ्रमित करता है।
सार यह है कि बाहरी रूप पर ध्यान देने से मनुष्य भ्रमित रहता है, जबकि वास्तविक मूल्य और सौंदर्य उसके भीतर—उसके चरित्र, नैतिकता और आत्मिक गुणों में—निहित हैं। यदि वह अपने भीतर की कुरूपता और दोषों को दूर करने का प्रयत्न करे, तभी वह वास्तविक सुंदरता और सत्य का अनुभव कर पाएगा।