फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाया जाने वाले त्योहार होली से आठ दिन पहले से होलाष्टक प्रारम्भ होते है। होलाष्टक के दिनों में कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित माना जाता है। होली एक सामाजिक पर्व है। सभी वर्गों के लोग आपसी भेदभाव मिटाकर बड़े उत्साह से मनाते है।
अपने परिजन भी दूर से होली मनाने घर लौटते हैं इसीलिए भारत भर में शायद ही कोई बस या रेलगाड़ी ऐसी मिले जिसमें होली से पूर्व खड़े होने की सीट भी मिल सके। इस दिन सांयकाल के बाद भद्रा रहित लग्न में होलिका दहन की जाती है। इस अवसर पर लकडिय़ों तथा घास-फूंस का बड़ा ढेर लगाकर होलिका पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है। लोग एक-दूसरे को बधाई देते हैं।
होलिका दहन के बाद गेहूं, जौ और चने की बालियां यानी भूने गये नये अनाज के साथ एक-दूसरे को देते हुए गले मिलकर बधाइयों का आदान -प्रदान करते हैं। बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेते हैं। अगले दिन होली खेलने की तैयारी की जाती है।
होलिका दहन के दूसरे दिन सुबह से ही पूरी उमंग के साथ होली खेलना शुरू हो जाता है।
बच्चों का उत्साह देखने लायक होता है। दिन भर रंग-गुलाल से जमकर होली खेली जाती है। चारों ओर रंग-अबीर की ही बहार होती है। यों कुछ लोग होली जैसे रंग-गुलाल और हुड़दंग भरे त्यौहार की आलोचना भी करते हैं। ऐसे लोग होली खेलने वालों से दूर-दूर भागते हैं।
जो लोग होली को केवल हुड़दंग मानते हैं वह अर्धसत्य है। दरअसल होली का मनाया जाने वाला यह एक ऐसा प्राचीन त्यौहार है जिसमें उपचार की बहुत ही सरल पद्धति शामिल कर दी गयी है। समय और स्थान के अनुसार इसे मनाने में कुछ बदलाव तथा असमानता भी आयी है पर त्यौहार की मूल भावना वैसी ही है। जैसे होलिका दहन के अवसर पर उसकी परिक्रमा का भी महत्व है। 145 डिग्री फारेनहाइट तापमान पर परिक्रमा के दौरान हमारे शरीर और आसपास के बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है।
अनेक लोग होली खेलने में गीली मिट्टी और कीचड़ का इस्तेमाल भी करते हैं। इस तरह होली खेलने वालों का शरीर मिट्टी से सन जाता है। मिट्टी में मौजूद अनेक तत्व शरीर के भीतर पहुंच जाते हैं और शरीर के विजातीय या विषैले पदार्थ मिट्टी में पहुंच जाते हैं।
बाद में जब साधारण पानी से स्नान किया जाता है तो इससे शरीर को दोहरा लाभ मिलता है- मिट्टी और जल चिकित्सा का। मिट्टी और पानी के मल-मलकर किये गये स्नान की इस प्रक्रिया में शरीर के रोम कूप खुल जाते हैं, रक्त प्रवाह सुचारु होता है तथा इससे त्वचा का पोषण भी होता है।
होली के अवसर पर विशेष रूप से गूजे-गुजिया (गुझिया), चावल के आटे से हिस्से लड्डू, मठरी, मूंग की दाल के पकौड़े, गाजर की चटपटी कांजी, दही-बड़े, एकाधिक नमकीन आदि अनेक पकवान भी बनाए जाते हैं। कांजी पेट के कृमि बाहर निकालने में सहायक होती है। नये अनाज की बालियां भूनकर खाने से कब्ज दूर होता है।
होली के त्यौहार के अवसर पर लोग एक-दूसरे से वैमनस्य समाप्त कर गले मिलते हैं और दूसरों को दुश्मनी भुलाकर मैत्री स्थापित करने के लिए भी प्रेरित करते हैं। अहंकार मिटाने का प्रयास होता है जिससे क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह आदि मानवीय दुर्गुणों का भी कमोवेश नाश होता है। चारों ओर आनन्द, मस्ती और उत्साह में वृद्धि होती है। ऐसा लगता है कि प्रकृति भी यह त्यौहार मनाने में लोगों के साथ होती है।
खिले हुए टेसू-पलाश के फूल अपनी अनूठी छटा बिखेरते दिखते हैं। इन फूलों से बनाए रंग से होली खेलने से अनेक विषाणुओं का प्राकृतिक रूप से नाश होता है और मनुष्यों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचती। बाजार में उपलब्ध तमाम रसायनों से निर्मित रंग-गुलाल त्वचा और आंखों को हानि पहुंचाते हैं। इनके प्रयोग से त्वचा रोग जैसे दुष्परिणाम भी सामने आते हैं।
लोग इकट्ठे होकर यह त्यौहार मनाते हैं। गाते-बजाते घूमते हैं। अलग-अलग स्थानों पर परम्पराओं में भी भिन्नता मौजूद है। विदेशों में बसे भारतीय भी होली की परम्परा को निभाने का प्रयास करते हैं। अनेक देशों में हमारी होली से मिलते -जुलते परम्परागत पर्व मनाए जाते हैं जिनमें रंग, टमाटर, मिट्टी- कीचड़ आदि का प्रयोग किया जाता है ।
कुछ सामाजिक संस्थाएं इस अवसर पर अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करती हैं। फाग गायी जाती है। होली मनाने की परम्परा हालांकि अब वैसी नहीं रह गयी है फिर भी अनगिनत लोग इसके प्राचीन और आधुनिक रूप में सामंजस्य बैठाकर एक अच्छे त्यौहार का इसका स्वरूप बनाए हुए हैं। अनेक लोग केवल चन्दन का तिलक लगाकर होली मनाते हैं। चन्दन शीतलता प्रदान करता है और इसका प्रयोग गर्मी के मौसम से होने वाली परेशानियों से बचाव भी होता है।
होली क्यों मनाई जाती है इस संबंध में कतिपय लोगों के अनुसार अग्नि पूजन, कुछ के अनुसार नव संवत्सर आरंभ तथा बसन्त ऋतु आगमन के उपलक्ष्य में किया गया महायज्ञ हैं जिसमें तमाम अन्नों का हवन किया जाता है। वात्स्यायन ने कहा है कि इस अवसर पर पिचकारी से फूलों के सार से बना हुआ रंग छोडऩे की प्रथा थी। कालिदास रचित ग्रंथों में वसंतोत्सव का नाम कहीं-कहीं ऋत उत्सव दिया गया है। होली मदनोत्सव भी था। इस अवसर पर लोग आम के बौर चढ़ाकर कामदेव की पूजा करते तथा मिठाई बांटते थे। ग्यारहवीं शती में इतिहासकारों के अनुसार फाल्गुन मास में दोल यात्रा के प्रसंग में होली जलाने की प्रथा का जिक्र किया गया है।
यह कथा भी प्रचलित है कि प्रहलाद दैत्यराज हिरण्यकशिपु का पुत्र था। हिरण्यकशिपु ने घोर तपस्या से विपुल शक्ति अर्जित कर ली। भगवान विष्णु से उसे विशेष विद्वेष था। हिरण्यकश्यप अपने पुत्र की शिक्षा के संबंध में जानने के लिए उसके गुरु के यहां गया तो उसे अपने पुत्र की भक्ति भावना का ज्ञान हुआ।
उसने क्रोधित होकर प्रहलाद को सर्प से कटवाकर, हाथी से कुचलवा कर तथा पहाड़ से गिरवाकर उसके प्राण हरण का प्रयत्न किया। एक बार उसकी आज्ञा से ही उसकी बहन होलिका भी अपने भतीजे प्रहलाद को लेकर आग पर बैठ गई लेकिन प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ और होलिका भस्म हो गई।
उसी समय से होलिकोत्सव का शुरू माना जाता है। कहा जाता है कि एक बार हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर प्रहलाद को एक लोहे के खम्भे से बांध कर कहा कि कहां है तेरा भगवान, जिसकी तू हमेशा रट लगाए रहता है। उसने जैसे ही प्रहलाद को मारने के लिए अपनी तलवार चलाई कि खम्भे को फाड़ नरसिंह रूप में अवतरित हो गए और अपनी जांघों पर बैठाकर हिरण्यकशिपु का नखों से पेट फाड़कर वध कर दिया।
– डा. विनोद बब्बर