आत्मबल द्वारा इन्द्रियों को जीतो, किन्तु ऐसा करने में वही समर्थ होगा, जिसे अपनी बुद्धि पर विश्वास हो, वह विवेकी हो, स्वभाव शांत हो, गम्भीर हो, धैर्यवान हो, परन्तु ये गुण उसी में होंगे, जो प्रभु विश्वासी होगा, प्रभु विश्वासी वह होगा, जो आत्म विश्वासी होगा। क्रोध को शान्ति से जीतो, दुष्ट को सज्जनता से जीतो, असत्य को सत्य से जीतो। मानवी सत्ता शरीर और आत्मा का सम्मिश्रण है। शरीर प्रवृत्ति पदार्थ है आत्मा चेतन है, परमात्मा चेतना का भंडार है।
आत्मा और परमात्मा की जितनी निकटता होगी, उतना ही अंतराल (अन्तर्मन) में सामर्थ्य आयेगा व्यक्तित्व विकसित और परिष्कृत होगा। महानता के अभिवर्धन का यही मार्ग है। आत्मा और परमात्मा को आपस में जोडने वाली उपासना यदि सच्ची है तो जीव और ईश्वर में गुण कर्म और स्वभाव की समता दृष्टिगोचर होने लगेगी। उपासना का अर्थ है प्रभु के समीप बैठना। इसके लिए साधन को परमात्मा के प्रति समर्पण करना होगा।
आत्म अनुशासन के साथ पवित्रता और प्रखरता से सम्पन्न बनना होगा। आत्मा की प्रगति के लिए उपासना, साधना एवं आराधना तीन आधार है। अनुशाासन में रहते अटूट श्रद्धा के साथ प्रभु स्मरण में नियमितता उपासना है, संचित कुसंस्कारों एवं अवांछनीय, आदतों, मान्यताओं का उन्मूलन साधना है। आराधना अर्थात लोक मंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में उदार सहयोग।