इजराइल हमास के बाद लेबनान में हिज़्बुल्लाह के पीछे पड़ गया है और जिस तरह से वो हमले कर रहा है उससे लगता है कि वो हिज़्बुल्लाह को बर्बाद करके छोड़ेगा । हिज़्बुल्लाह चीफ हसानुल्ला के साथ-साथ उसने हिज़्बुल्लाह के लगभग सभी बड़े कमांडरों को खत्म कर दिया है । यह ठीक है कि हिज़्बुल्लाह जल्दी ही नया नेतृत्व खड़ा कर लेगा लेकिन वो अब जल्दी ही पहले जैसा प्रभावी नहीं बन सकता। हिज़्बुल्लाह को खत्म करना संभव नहीं है लेकिन उसकी मारक क्षमता को खत्म किया जा सकता है और इजराइल यही कर रहा है । इजराइल हिज़्बुल्लाह को ऐसी हालत में पहुंचा देना चाहता है जिससे वो उसकी सुरक्षा के लिए कोई खतरा न बन सके ।
जब इजराइल हमास के खिलाफ कार्यवाही कर रहा था तो हिज़्बुल्लाह ने इजराइल पर हमले किये थे तो उस वक़्त इजराइल ने उसे चेतावनी दी थी कि उसे इसकी कीमत चुकानी होगी । इजराइल जानता है कि हिज़्बुल्लाह हमास से कहीं ज्यादा ताकतवर आतंकवादी संगठन है और वो हमास की तरह ही कभी भी इजराइल पर भयानक हमला कर सकता है। संभावना इस बात की भी थी कि इजराइल हिज़्बुल्लाह के बाद हाउती विद्रोहियों के खिलाफ भी कार्यवाही कर सकता है और इसमें उसे अमेरिका सहित कई देशों का साथ मिलेगा । ऐसा लगता है कि असली निशाना भी हाउती विद्रोही हैं क्योंकि ये पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं। अब इजराइल ने हाउती विद्रोहियों के खिलाफ भी कार्यवाही शुरू कर दी है। गाज़ा में लगभग चालीस हजार लोग मारे जा चुके हैं जिसमें बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं और अब लेबनान में इजराइल की कार्यवाही में कितने लोग मारे जाएंगे, ये आने वाला वक़्त बताएगा । सवाल उठता है कि गाज़ा और लेबनान में मरने वाले ज्यादातर फिलिस्तीनी हैं लेकिन इन लोगों की मौत पर अरब देशों में चुप्पी क्यों हैं । अरब देशों की जनता गुस्से से उबल रही है लेकिन इन देशों की सरकारें शांत हैं हालांकि अंतराष्ट्रीय मंचो पर ये देश इजराइल के खिलाफ खड़े हैं । पूरे विश्व के मुस्लिम इजराइल को उसके जन्म से ही अपना शत्रु मानते हैं लेकिन मुस्लिम देश इजराइल खिलाफ एकजुट होकर खड़े नहीं हो पा रहे हैं । इसके विपरीत कुछ मुस्लिम देश इजराइल की मदद कर रहे हैं या अप्रत्यक्ष रूप से उसके साथ खड़े हैं।
1948 में इजराइल का निर्माण किया गया था और पूरी दुनिया से आकर यहूदियों ने इजराइल में बसना शुरू कर दिया था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों की मदद पाने के लिए ब्रिटेन ने यहूदियों के लिए एक देश बनाने का वादा किया था लेकिन उसने पूरा नहीं किया । दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने अपना वादा पूरा किया और अमेरिका ने उसका साथ दिया । इसके अलावा अन्य पश्चिमी देशों ने भी इसका समर्थन किया। यहूदी मानते हैं कि वो पहले इजराइल में ही रहते थे फिर उन्हें वहां से निकाल दिया गया इसलिए वो इजराइल को ही अपना घर मानते हैं। इजराइल के बनने से पहले ही यहूदियों ने वहां बसना शुरू कर दिया था और इसके लिए उन्होंने फिलिस्तीनी लोगों से ही जमीन खरीदी थी। जब इजराइल बन गया तो अरब देशों ने इसको मानने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि फिलिस्तीन अरब मुस्लिम देश है, यहां यहूदियों के लिए देश उन्हें मंजूर नहीं है। पूरे अरब जगत ने इजराइल के खिलाफ नो पीस, नो नेगोशिएशन, नो रिकॉग्निशन की नीति लागू की । इस नीति से तय हो गया कि कोई भी अरब देश न तो इजराइल से शांति स्थापित करेगा, न कोई बात करेगा और न ही उसे मान्यता देगा। यही कारण है कि इजराइल के बनते ही 1948 में 6 अरब देशों ने इजराइल पर हमला कर दिया लेकिन उन्हें एक शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा।
युद्ध के दौरान ही हज़ारो फिलिस्तीनी लोगों ने हमेशा के लिए इजराइल छोड़कर जॉर्डन, लेबनान और सीरिया में शरण ले ली । जहां इस युद्ध से इजराइल मजबूत हो गया वहीं फिलिस्तीनी पड़ोसी देशों में शरणार्थी बनने को मजबूर हो गए। विडम्बना यह भी है कि इजराइल में रहने वाले फिलिस्तीनी भी अरब देशों के हमले का शिकार बने । अजीब बात है कि जिनके लिए अरब देशों ने युद्ध किया, वो लोग की उनका शिकार बन गए । उन्हें इस युद्ध के कारण अपना देश छोडऩा पड़ा और जिन देशों में शरण ली, वहां भी उनके कारण समस्याएं पैदा हो रही हैं। इस युद्ध के बाद भी अरब देशों और इजराइल में कई बार संघर्ष हो चुका है लेकिन इजराइल लगातार मजबूत होता जा रहा है।
इजराइल के गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक में रहने वाले फिलिस्तीनी वर्षो से इजराइल से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन कमजोर होते जा रहे हैं। ईरान ने लेबनान और गाज़ा में रहने वाले फिलिस्तीनी और अन्य लोगों को आर्थिक और सैन्य सहायता देकर इजराइल के खिलाफ खड़ा कर दिया है। इसके अलावा उसने यमन में भी हाउती विद्रोहियों को बहुत ताकतवर बना दिया है जिसके कारण यमन पर उनका पूरा नियंत्रण हो चुका है। अब हाउती पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बन चुके हैं। इजराइल के खिलाफ होने के बावजूद अरब देश इजराइल के खिलाफ एकजुट नहीं हैं और दूसरे मुस्लिम देशो का भी यही हाल है। सवाल यह है कि क्या सिर्फ अरब देश ही इजराइल के खिलाफ एकजुट नहीं हैं।
वास्तव में सिर्फ अरब देशों की सरकारें ही नहीं बल्कि इनकी मुस्लिम जनता में भी इजराइल के खिलाफ एकजुटता नहीं है। ज्यादातर मुस्लिम देशों की जनता इजराइल से नफरत करती है इसलिये हमारी धारणा है कि अरब देशों की पूरी जनता इजराइल का विरोध करती है। वास्तव में अरब देशों में भी एक बड़ा तबका ऐसा है जो अब फिलिस्तीन से आगे बढऩा चाहता है और इजराइल के साथ रिश्ते बनाने का समर्थक है । यही कारण है कि अरब देश धीरे-धीरे इजराइल के नजदीक जा रहे हैं। सऊदी अरब और यूएई जैसे देश यह समझ चुके हैं कि सिर्फ तेल के भरोसे रहना भविष्य की दृष्टि से सही नहीं है। ये देश अपने आर्थिक विकास के लिए इजराइल से सहयोग चाहते हैं। वो ये भी समझ चुके हैं कि इजराइल से दुश्मनी का कोई फायदा नहीं है और उससे लडऩा बर्बादी के अलावा कुछ नहीं दे सकता ।
वास्तव में अरब देश अमेरिका से अपने रिश्तों की अहमियत को अच्छी तरह से जानते हैं और ये देश इजराइल और अमेरिका के रिश्ते को भी समझते हैं। अमेरिका इन देशों की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के लिए बहुत जरूरी है। अरब देशों के लिए इजराइल से ज्यादा बड़ा खतरा ईरान की तरफ से है । इजराइल और ईरान की दुश्मनी सिर्फ फिलिस्तीन के कारण नहीं है बल्कि ईरान मुस्लिम देशों में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए भी इजराइल से दुश्मनी रखता है। ईरान सऊदी अरब से मुस्लिम देशों का नेतृत्व छीनना चाहता है और सऊदी अरब को इजराइल का दोस्त साबित करने पर तुला हुआ है। हमास, हिज़्बुल्लाह और हाउती सिर्फ इजराइल के शत्रु नहीं हैं बल्कि अरब देशों के लिए भी ये संगठन बड़ा खतरा हैं । वास्तव में ईरान ने इन्हें खड़ा भी इसलिए किया है ताकि वो एक क्षेत्रिय शक्ति बन सके ।
देखा जाए तो अरब देश इन संगठनों के खिलाफ इजराइल की कार्यवाही से अंदर ही अंदर खुश हैं । यही कारण है कि अरब देश इजराइल की कार्यवाही पर चुप्पी साध कर बैठे हैं। हिज़्बुल्लाह चीफ की हत्या पर कई मुस्लिम देशों में खुशी मनाई गई है क्योंकि हिज़्बुल्लाह एक शिया संगठन है और सुन्नी मुस्लिम अरब देश उसे अपने लिए खतरा मानते हैं। यमन विद्रोही कई बार अरब देशों पर हमले कर चुके हैं और सऊदी अरब ने तो इनके खिलाफ बड़ी सैन्य कार्यवाही भी की थी । अरब देशों और इजराइल के बीच दुश्मनी का आधार फिलिस्तीन समस्या है लेकिन अरब देश इस समस्या को अब अपनी समस्या नहीं मानते हैं। अपने देश की जनता के दबाव के कारण अरब देशों के शासक खुलकर इजराइल के साथ नहीं आ रहे हैं लेकिन वो अब इजराइल से लडऩे के इच्छुक नहीं हैं। वैश्विक राजनीति के कारण अरब देश इजराइल के साथ बेशक खड़े नजर न आ रहे हो लेकिन वो इसके खिलाफ भी खड़े नहीं होना चाहते हैं।
अरब देश कट्टरता से बाहर निकल रहे हैं और धर्म के अलावा अन्य मुद्दों पर भी ध्यान दे रहे हैं। एक सच यह भी है कि हमास और हिज़्बुल्लाह के कारण फिलिस्तीन का मुद्दा गायब हो गया है। फिलिस्तीन का असली संघर्ष वेस्ट बैंक में बैठे फिलिस्तीनी नेता कर रहे हैं जो बातचीत से अपनी समस्या का हल चाहते हैं लेकिन उनकी बात सुनने को कोई तैयार नहीं है। सशस्त्र संघर्ष कर रहे हमास और हिज़्बुल्लाह ही फिलिस्तीन के लिए खड़े नजर आ रहे हैं जबकि असल में इनका एजेंडा फिलिस्तीन नहीं बल्कि इजराइल की बर्बादी है। ऐसा लगता है कि अरब देशों को सब समझ आ गया है इसलिये वो धीरे-धीरे एक नए रास्ते पर चलते नजर आ रहे हैं।
-राजेश कुमार पासी