मेरठ। देश के महान स्वतंत्रता सैनानी रफी अहमद किदवई के यौम ए पैदाइश के मौके पर ऊर्दू विभाग में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें रफी अहमद किदवई के बारे में वक्ताओं ने अपने विचार रखे। इस दौरान प्रोफेसर डॉ. तरन्नुम ने कहा कि रफ़ी अहमद किदवई उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के मसौली गाँव में इम्तियाज़ अली किदवई और राशि-उल-निसा की संतान थे। उन्होंने दस साल की उम्र में अपनी माँ को खो दिया था और उनका पालन-पोषण उनके चाचा इनायत अली ने किया था, जिनसे उन्हें ब्रिटिश विरोधी विचारधारा विरासत में मिली थी।
जब वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्र थे, तो उनके खुले ब्रिटिश विरोधी विचारों के लिए उन्हें ‘खतरनाक व्यक्ति’ के रूप में ब्रांडेड किया था। इस कारण से अंग्रेन उनके नाम से कांपते थे। महात्मा गांधी द्वारा दिए गए आह्वान के जवाब में उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने के लिए अलीगढ़ छोड़ दिया। उन्होंने बाराबंकी जिले में खिलाफत असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया। तब से, उन्होंने राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जमींदार परिवार से होने के बाद भी जमीदारी प्रथा का किया विरोध
डॉ. रितेश सिंह ने कहा कि रफी अहमद किदवई एक जमींदारी परिवार से थे, परन्तु उन्होंने जमींदारी व्यवस्था को समाप्त करने का आह्वान किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों में बदलाव की आशा से, वह विधानसभा में प्रवेश करने के लिए सहमत हुए। किदवई 1935 में मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में हुए चुनाव में जीत हासिल की और मंत्री बने। मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, रफी अहमद ने कई सुधारों का प्रस्ताव रखा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उन्हें अक्टूबर, 1940 में युद्ध विरोधी सत्याग्रह आंदोलन के आयोजन की जिम्मेदारी सौंपी, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। उस आंदोलन के दौरान रफी अहमद किदवई को गिरफ्तार किया गया था।
भारत छोड़ो आंदोलन के बाद जब अधिकांश नेता जेलों में थे, तब मुस्लिम लीग ने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया था। उस समय, उन्होंने अपनी सभी क्षमताओं के साथ लीग का सामना किया। उन्होंने लीग की विभाजनकारी रणनीति को विफल करने के लिए एक पत्रिका ‘कौमी आवाज’ शुरू की। धर्मनिरपेक्ष विचारों के प्रसार के लिए ‘नेशनल हेराल्ड’ जैसे समाचार पत्रों में कई लेख भी लिखे।
प्रो. पुष्पेद्र ने कहा कि भारत की अखंडता और सभ्यता की संस्कृति के प्रति रफी अहमद किदवई के मन में बहुत सम्मान था। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि, भारत के विभाजन का मतलब अखंडता की संस्कृति का विभाजन है। 1947 के बाद, जब भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बना, उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विभिन्न पदों पर कार्य किया। सरकार और नागरिक समाज दोनों में प्रभावी भूमिका निभाने वाले रफी अहमद किदवई को जनता ने खूब सराहा। 24 अक्टूबर, 1954 को इन महान हस्ती का निधन हो गया, जब दिल्ली में एक जनसभा को संबोधित करते हुए वे सीने में दर्द के कारण गिर पड़े। इस दौरान सभी ने इस महान सपूत के यौमे पैदाइश पर, इनके बताए नक्शे कदम पर चलने और देश की अखंता और एकता को बनाए रखने की संकल्प लिया।