किसी भी राष्ट्र की सुदृढ़ता का आंकलन केवल सैन्य क्षमता से नहीं किया जा सकता क्योंकि राष्ट्र की वास्तविक शक्ति उसके समाज में निहित है। जिस समाज में जितनी अधिक सद्भावना होगी, वह राष्ट्र उतना ही सक्षम और शक्तिशाली होगा। यदि इस कसौटी पर हम अपने समाज को कसते हैं तो किंचित क्षोभ होता है कि आखिर हमारा बुद्धिहरण क्यों और कैसे हुआ कि अभारतीय विचारधाराओं ने हमारे समाज को बांटने और विभाजन को गहरा किया। क्या यह उसी षडयंत्र का परिणाम नहीं कि हम स्वयं को भारतीय अथवा हिन्दू नहीं, इस या उस जाति का बताते हैं। यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि ऊंच-नीच, भेदभाव के आरोपों से अपमानित होने वाले समाज में हर जाति श्रेष्ठता ग्रंथि की शिकार है।
ऐसी अनेक ऐसी धारणाएं फैलायी गई है कि फलां जाति कंजूस, फलां अत्याचारी, फलां मूर्ख बनाने वाली, फलां कम बुद्धि है। फलां चतुर, फलां लड़ाकू फलां लालची आदि, आदि हैं। इन मूर्खतापूर्ण धारणाओं का परिणाम है कि हमें एक-दूसरे पर अविश्वास होने लगा। एक-दूसरे पर शक होने लगा। आपसी टकराव बढ़ा। नतीजा सक्षम, शक्तिशाली, सहिष्णु, कर्मयोगी और विश्वगुरु कहलाने वाला भारत बंट कर कमजोर होने लगा।
क्या यहां जातियां सदा से हैं? क्या जातिगत ऊंच-नीच, भेदभाव सदा से हैं? इसकी पड़ताल करने पर जानकारी मिलती है कि बेशक यहां जातियां रही हैं लेकिन जन्मना नहीं, कर्मणा। ऊंच-नीच, भेदभाव नहीं था। अगर भेदभाव या ऊंच-नीच जैसा कुछ होता तो अयोध्या के राजकुमार श्रीराम भीलनी शबरी के झूठे बेर कैसे खा सकते थे? संत रविदास की शिष्या राजघराने की मीरा कैसे होती? राम की केवट से निकटता, कबीर, दादू, रैदास को समाज में प्राप्त श्रद्धा और सम्मान जैसे असंख्य उदाहरण हैं। पिछड़ी जातियों में जन्में संतों को सम्मान और श्रद्धा कैसे मिलता? जाति परिवर्तन के अनेक उदाहरण भी मिलते हैं यथा विश्वामित्रा क्षत्रिय से ब्राह्मण, महाराज अग्रसेन वैश्य और श्रीकृष्ण यदुवंशी हुए। अगर ऊंच -नीच, जैसा कुछ होता तो क्या ऐसा संभव था? महर्षि बाल्मीकि का पूजन ब्राह्मण, क्षत्रिय क्यों करते?
आज भी परम्पराओं का पालन करते हुए विवाह के समय कुम्हार के घर जाकर चाक पूजन और बेटे का जन्म होने पर किसान के खेत में कुआं पूजन होता है। हर शुभ अवसर पर कुम्हार के बने कलश को सबसे पहले रखा जाता है। त्यौहार के अवसर पर मंदिर में पूजन में प्राप्त चढ़ावे को आधा पूजन कराने वाले पंडित और आधा माली को बांटते यदि गांव से जुड़े हैं तो आपने भी जरुर देखा, अनुभव किया होगा। बच्चे के मुंडन के अवसर पर पंडित से अधिक नेग नाई को मिलता है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो भेदभाव को नकारते हैं। आपसी बातचीत में सभी जातिवाद के विरोधी दिखाई देते हैं लेकिन आश्चर्य कि जातिवाद का गुब्बारा फूलता ही जा रहा है।
जातिवाद का विरोध करने के लिए अपनी- अपनी जाति को संगठित करने के लिए धरती से आसमान तक नापे जा रहे हैं लेकिन इससे कोई जाति मजबूत हो या न हो मगर कुछ लोग जरुर मजबूत हो जाते हैं। नेता हीरे के मुकुट पहने पर उस जाति के लोगों की स्थिति में बदलाव का कोई संकेत नहीं है। ग्वाले का बेटा अपनी जाति की स्थिति सुधारने के नाम पर अपने परिवार के नाकारा सदस्य को तक को मंत्री बनाने में सफल रहता है पर कमजोर की हालत जस की तस रहती है। ये कुछ उदाहरण हैं कि जाति कोई भी हो, राजनीति विभाजन करा, शासन के सूत्रों लाती है। निज स्वार्थ के लिए कुछ लोगों ने संकीर्णता का जाल बिछाकर समरसता को प्रभावित किया।
अब प्रश्न यह कि ऐसा हुआ क्यों? यदि हम इतिहास का निष्पक्षता से अध्ययन करें तो समझ सकते हैं कि यह एक लम्बे षडय़ंत्रा का हिस्सा है जिसने आपस में बांटकर सबसे पहले हमें गुलाम बनाया और फिर धर्मान्तरण का जाल बिछाया। हमारे संसाधन लूट लिये मगर हम बंटे हुुए टुकर-टुकर देखते रहे। धार्मिक स्थल तोड़े गये, संख्या में उनसे अधिक और सक्षम होते हुए भी हम बंटे हुए तमाशा समझ उसे देखते रहे लेकिन यह तमाशा बहुत महंगा पड़ा। उसकी कीमत हम आज भी चुका रहे हैं। देश का विभाजन तक हुआ पर आज भी सामाजिक समररसता को समर में बदलने वाले सक्रिय हैं।
समरसता का अर्थ है ‘सभी को अपने समान समझना।
सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना। वेद सहित किसी भी ग्रन्थ में जाति या वर्ण के आधार पर किसी भेदभाव का उल्लेख नहीं है। गुलामी के सैंकड़ों वर्षों में षडय़ंत्रा के तहत धार्मिक ग्रन्थों में कुछ मिथ्या बातें जोड़ देने से आई विकृतियों के कारण भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुुई। हम भूल गये कि जो महत्त्व हमारे शरीर के हर अंग में जीवन रसता (रक्त प्रवाह) का है जिसके सम रूप से प्रवाहित होने से ही हम स्वस्थ रहते हुए परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकते हैं वहीं महत्त्व राष्ट्र में समरसता का है।
रक्त प्रवाह बाधित होने से हमारे शरीर का कोई अंग लुंज पुंज हो जाता है। अनेक बार शिराओं में आये व्यवधान के कारण प्राण संकट में पड़ जाते हैं। लाखों खर्च कर जीवन रसता में बाधा बने अवरोध वाले स्थान पर तत्काल ‘स्टेंट लगवाते हैं। कई बार ‘बाईपास सर्जरी भी करवाते हैं। स्मरण रहे रक्त में हीेमोग्लोबिन, श्वेत रक्त कणिकायें, लाल रक्त कणिकाओं होती हैं। इनके बिना रक्त का कोई मतलब नहीं है। ठीक उसी प्रकार समरसता में भी पढ़ाई, दवाई, कमाई (शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक सुरक्षा) का होना अनिवार्य है। समाज के हर व्यक्ति तक ये तीनों पहुंचें, तभी समरसता की सार्थकता है।
समरसता किसी जाति, धर्म, प्रांत, भाषा तक सीमित नहीं है।
हर भारतीय के लिए समरसता हो। कानून से अधिक यह समाज की जिम्मेवारी है कि समरसता सुनिश्चित करें। कानून की अपनी सीमायें हैं। कानून समान अपराध के लिए समान दंड का पक्षधर है लेकिन वोट बैंक के ठेकेदार वातावरण को नष्ट करते हैं। उनकी दृष्टि में सैनिकों पर हमले करने वाले, देश के टुकड़े करने के नारे लगाने वाले देशद्रोही ‘भटके हुए नौजवान हैं लेकिन ऐसे लोगों का विरोध ‘सांप्रदायिक है। धर्मनिरपेक्षता की गलत परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन को कभी सांप्रदायिक तो कभी समरसता का विरोधी कहा जाता है। बाल्यकाल से स्वयंसेवक हूं। आधी शताब्दी से अधिक बीत जाने के बाद आज तक भी किसी ने मुझसे मेरी जाति नहीं पूछी।
किसी भेदभाव का प्रश्न ही नहीं। मुझे याद है पहली बार ‘सहभोज का कार्यक्रम बना तो मैं अत्यंत प्रसन्न था क्योंकि उस समय भोज का अर्थ था- पकवान, मिष्ठान, आनंद लेकिन वहां तो हर किसी को घर से सादा भोजन लाने को कहा गया। सबकी रोटियां मिला दी गई। सबकी दाल, सब्जी भाजी का रसास्वादन सबने किया। कोई भेदभाव नहीं। यदि यह समरसता नहीं है तो फिर दुनिया में कहीं भी समरसता नहीं है। इससे अधिक व्यावहारिक समरसता हो ही नहीं सकती। संघ को समरसता का विरोधी बताने वाले जानबूझ कर इस बात को अनदेखा करते हैं कि श्री गुरुजी का उद्घोष है, ‘यदि अस्पृश्यता पाप नहीं तो संसार में कुछ भी पाप नहीं।
हमारे संविधान में समानता पर बल दिया गया है। समानता और समरसता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सबको न्याय, समानता, समरसता मिले समान रूप से आगे बढऩे का अवसर मिले तभी हमारा राष्ट्र उन्नत राष्ट्र बन सकता है। यह हम सबका प्रथम कर्तव्य है कि संकीर्णताओं का त्यागें। अपने महापुरुषों की मूर्तियां बनाने के साथ-साथ उनके आदर्शों को समरसता को अपने व्यवहार में मूर्त रूप से अपनायें। सभी समझें – न जाति, न धर्म, सबसे पहले समरसता के लिए कर्म।
2011 में हुई जनगणना के दौरान पूछे गये ढेर सवालों में एक सवाल था- आपकी जाति। मेरा उत्तर था- गधा। वे मुस्कुराकर बोले, ‘गधा? यह भी कोई जाति हो सकती है? उन्होंने इस जाति के इतिहास भूगोल के बारे में जानना चाहा। मेरा प्रति प्रश्न था, ‘अन्य जातियों की उत्पत्ति कब, कहां, कैसे, किसने, की इसका कोई प्रमाण आपके पास हो तो कृपया प्रस्तुत करे। जानते हुए भी कि जाति कर्म आधारित थी, समाज में विद्वेष उत्पन्न करने वाले षडय़ंत्रों, कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, को गधे की तरह चुपचाप ढो रहे हैं, अत: यह गधापन ही मेरी जाति है।
-डा. विनोद बब्बर