तीन चुनावी हार के बावजूद हुड्डा अजेय, विपक्ष और संगठन दोनों पर मजबूत पकड़

Haryana News: हुड्डा का दबदबा बना रहा, कांग्रेस ने पुरानी राह चुनीहरियाणा कांग्रेस में एक साल चली खींचतान के बाद भी आखिरकार भूपिंदर सिंह हुड्डा की पकड़ ढीली नहीं हुई। विधानसभा में नेता विपक्ष का पद उनके हिस्से आया और प्रदेश अध्यक्ष पद भी उनके खेमे के राव नरेंद्र सिंह को मिल गया। इस फैसले ने साफ कर दिया कि कांग्रेस ने बदलाव की बजाय पुरानी रवायत को ही चुना है। तीन बार की चुनावी हार के बावजूद हुड्डा को ही आगे लाकर कांग्रेस ने जाट वोट बैंक को साधने की कोशिश की है।
भूपिंदर सिंह हुड्डा और कांग्रेस – साथ-साथ का रिश्ता
जाट और ओबीसी समीकरण साधने की कोशिश
कांग्रेस के सामने चुनौती जाटों से इतर समुदायों को प्रतिनिधित्व देने की थी। इसी समीकरण के तहत ओबीसी समाज से आने वाले राव नरेंद्र सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। यादव समाज से आने वाले राव नरेंद्र अहीरवाल बेल्ट से ताल्लुक रखते हैं, जहां भाजपा लगातार मजबूत प्रदर्शन कर रही है। यहां भी हुड्डा के लिए राहत की बात यह रही कि प्रदेश अध्यक्ष पद उनके ही करीबी को मिला।
दलित नेतृत्व को किनारे कर मिली नई दिशा
करीब दो दशक बाद कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष की कमान किसी दलित नेता से छीनकर ओबीसी को सौंपी है। इससे पहले उदयभान, फूलचंद मुलाना, अशोक तंवर और कुमारी सैलजा जैसे नेता दलित चेहरों के तौर पर अध्यक्ष पद संभाल चुके थे। इस बार समीकरण बदलने से कुमारी सैलजा, रणदीप हुड्डा और चौधरी बीरेंद्र सिंह जैसे दिग्गज नेताओं को झटका लगा है। यह संकेत साफ है कि फिलहाल पार्टी का पूरा फोकस हुड्डा खेमे को मजबूती देने पर है।
गुटबाजी – सबसे बड़ी चुनौती
अब कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती आंतरिक गुटबाजी को खत्म करना है। विधानसभा चुनाव में गुटबाजी ही पार्टी की हार की बड़ी वजह बताई गई थी। राव नरेंद्र सिंह को अध्यक्ष बनाने की प्रक्रिया भी काफी विवादों से भरी रही। कई ओबीसी नेता इस रेस में थे, लेकिन अंत में यादव समाज से राव नरेंद्र को चुना गया। प्रभारी बीके हरिप्रसाद ने विरोधी गुट से भी राय मशविरा किया, लेकिन अंततः हुड्डा खेमे का ही पलड़ा भारी रहा।
लगातार हार पर उठ रहे सवाल
राव नरेंद्र सिंह को अध्यक्ष बनाने के फैसले से सवाल भी उठने लगे हैं। कैप्टन अजय यादव ने खुलकर विरोध जताया है। दरअसल, राव नरेंद्र सिंह लगातार तीन चुनाव हार चुके हैं। सीनियर नेता सवाल कर रहे हैं कि जो नेता अपनी सीट तक नहीं जीत पाया, वह पार्टी को कैसे मजबूत करेगा। आलोचकों का कहना है कि यह नियुक्ति भी उदयभान की तरह साबित हो सकती है और असली नियंत्रण हुड्डा परिवार के हाथों में ही रहेगा।