महर्षि बाल्मीकि के राम: मौन से पुरूषार्थ तक की यात्रा

आज महर्षि बाल्मीकि जयंती है। इस अवसर पर उनके द्वारा रचित महान ग्रंथ 'रामायण' से कुछ उल्लेख करना प्रासांगिक रहेगा। बाल्मीकि के राम 16 वर्ष की आयु तक एक प्रकार से मौन धारण किये चलते है। वें पिता की सुनते है, गुरू की सुनते हैं, भाईयों की सुनते हैं। बोलते उतना ही है जितना संवाद के लिए जरूरी है। बाल्मीकि रामायण के अनुसार राम के पुरूषार्थ का प्रथम परिचय ताड़का वध नहीं उसे तो वे धर्मचरण करते दंडित करते हैं। राम के पुरूषार्थ का प्रथम परिचय तब मिलता है, जब वे खेल-खेल में शिव धनुष को भंग कर डालते हैं, जिस पर कोई देव, असुर, राक्षक प्रत्यंचा तक न चढा सका। यह राम के पुरूषोत्तम रूप में समाहित महागुण का ही दर्शन है। उनका अद्वितीय पुरूषार्थ और उस पुरूषाथ को इस संसार में प्रतिष्ठित करने वाले प्रथम कवि बाल्मीकि ही हैं। बाल्मीकि के राम को क्रोध प्रथम बार तब आता है, जब परशुराम उन्हें चुनौती देते हैं। पिता के सामने राम संयमित हैं, लेकिन सीमा तोड़ रहे परशुराम को कह उठते हैं 'ब्राह्मण होने के कारण मैं आपका सम्मान करता हूं, किन्तु आपको मुझे चुनौती देने का अधिकार नहीं है, मुझे अपना धनुष दीजिए और देखिए मेरा पराक्रम। कुछ विद्वानों का मत है कि बाल्मीकि ने उन्हें केवल महान प्रतापी राजा के रूप में प्रतिष्ठित किया, मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में तो उन्हें तुलसी ने ही प्रतिष्ठित किया, जो सत्य से परे है। केवल एक प्रसंग इसे सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि राज्यभिषेक की घोषणा पर राम न प्रसन्न हुए और न बनवास के आदेश पर विचलित हुए। दोनों समय अविचलित और स्थित प्रज्ञ योगी की भांति स्थिर रहे।