मोक्ष भी यदि स्वार्थमय हो जाए तो?

केवल अपने लिए जीना और केवल अपनी ही उन्नति के बारे में सोचना, निजी लाभ के कार्यो को पूरा करने में ही रूचि रखना कहां तक उचित है? केवल अपने ही हितों का पोषण तथा संरक्षण करना पर्याप्त नहीं। इस पर निर्णय लेने के सुअवसर बार-बार मिलते हैं, परन्तु मनुष्य निजी स्वार्थों के वशीभूत होकर फिसलता रहता है और जहां स्वार्थों की पूर्ति हो उसी मार्ग को अपनाने को ही श्रेयष्कर समझता है। देश के लिए, समाज के लिए और कुटुंब परिवार के लिए जीना बड़ी बात है, परन्तु मानवता के लिए जीना सबसे बड़ी बात है। मानव का कल्याण ही जीवन का ध्येय और लक्ष्य होना चाहिए। जीव उद्धार के लिए अनेक परमार्थियों ने अपने जीवन की दिशा बदल दी। लोकहित की प्रेरणा ने ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों की जीवनधारा बदल डाली। स्वार्थों को त्याग कर महापुरूषों ने कल्याण की दिशाएं खोजी और उन्हीं पर चलने का अपने जीवन का ध्येय बना लिया। वस्तुत: ऐसे ही जीवन की दिशाएं धर्म मार्ग की ओर जाती दिखाई देगी। उन्हें देखने के लिए अन्त: चक्षु चाहिए। आत्मा का स्पंदन सुनने की सामर्थ्य हो तो जीवन की सही दिशाएं स्पष्ट दृष्टिगोचर होंगी। इसलिए मोक्ष की दिशा से पहले मानव कल्याण के मार्ग पर चलना श्रेयष्कर है अन्यथा मोक्ष भी स्वार्थ की श्रेणी में मात्र एक व्यक्ति के कल्याण का परम बिन्दू भर रह जाता है। आज के संदर्भ में स्वामी दयानन्द का जीवन, जीवन्त और अनुकरणीय उदाहरण है।