"श्रद्धा: विश्वास का वह दीप जो अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाए"

मन की वह अनुभूति जो किसी के प्रति सर्वोच्च विश्वास स्थापित करती है श्रद्धा कहलाती है। भगवान का कल्याणकारी स्वरूप बिना विश्वास और श्रद्धा के किसी भी व्यक्ति को आशानुसार परिणाम नहीं देता। श्रद्धा और विश्वास के जितनी दृढ़ता होगी परिणाम की सघनता भी उतनी ही अधिक होगी। संशय ग्रस्त व्यक्ति न कुछ सीख सकता है और न कुछ पा सकता है। मनीषी भी कहते हैं 'श्रद्धावान लभते श्रानम्' अर्थात ज्ञान की प्राप्ति और ज्ञान से लाभ श्रद्धावान को ही मिलेगा। अज्ञान से ज्ञान की यात्रा श्रद्धा और विश्वास के चरणों से गन्तव्य की प्राप्ति कराती है। श्रद्धांकुर सदा वद्र्यमान रहता है तथा निजि अनुभवों से पल्लवित और पुष्पित होता है। इसी कारण माता-पिता, गुरूजन तथा कुछ महान विभुतियों के प्रति श्रद्धा उनके जीवन में तो बनी ही रहती है। कभी-कभी तो श्रद्धा मरणोत्तर और अधिक बढती है, क्योंकि उनसे सम्बन्धित दूसरों के अनुभव उनके प्रति हमारी श्रद्धा भावना को और उदीप्त कर देतीहै। श्रद्धा और विश्वास तभी पुष्पित और पल्लवित होगी, जब श्रद्धेय के आदर्शों को अपनाये। वे हितैषी और लोक कल्याणक कार्य किये जाये जो उन्हें पसंद होते थे।