"दशहरा: प्रतीकात्मक विजय से वास्तविक सुधार की ओर"

आज विजयदशमी के अवसर पर पूरे भारत के विभिन्न भागों में असंख्य स्थानों पर 'रावण' फूंका जायेगा। हर वर्ष की भांति आज भी यह परम्परा निभा दी जायेगी कि दशहरा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है, परन्तु इसके समानान्तर हम यह भी प्रतिदिन देखते है कि अच्छाई कहीं एक कोने में दुबक कर सुबक-सुबक कर कराहती रहती है। भौतिक विकास की दौड़ में मानवीय सम्बन्ध जिस प्रकार तार-तार हो रहे हैं उनकी चपेट में अधिकांश परिवार आ रहे हैं। दशहरे का सबसे बड़ा संदेश समाज में नैतिक मर्यादाओं का पालन करते हुए उसे सामान्य जन के लिए सुरम्य स्थान बनाने का है। भारतीय संस्कृति में जनमूलक शासन की व्यवस्था का विधान आदि काल से इस प्रकार रहा कि राजा और प्रजा के अधिकारों में समानता का भाव रहे। इसका सबसे बडा प्रमाण हमें राम-रावण युद्ध में मिलता है। इस युद्ध का कारण भी सामान्य जनों के अधिकारों का हनन ही था। मानवीय इतिहास का इसे प्रथम युद्ध भी कहा जा सकता है, जिसमें रावण की सर्वभांति सुसज्जित सेना का मुकाबला आदिवासियों की सेना तैयार कर श्री राम ने किया। रावण महाबलशाली और महापंडित वेदों का ज्ञाता था, किन्तु वह अभिमानी हो गया और यही अभिमान उसके सारे ज्ञान को खा गया। नीति निपुण होने के बावजूद उसने नीतिशास्त्र के विरूद्ध आचरण किया और अन्त में यही नीति विरूद्ध आचरण और उसका अभिमान उसके विनाश का कारण बना।