लक्ष्मी संग गणेश-सरस्वती पूजन का अर्थ



यूं तो नित्य-प्रति लक्ष्मी की आवश्यकता होती है। किसी-न-किसी रूप में अमीर से गरीब तक, मजदूर, किसान से तक अर्थ की कामना करता है। कुछ की कामना धन कुबेर बनने की होती है तो शेष अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन अर्थात् परिवार की संसारिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन चाहते है। बहुसंख्यक वर्ग ‘साई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाय’ में विश्वास रखता है लेकिन अल्पसंख्यक कुबेर पुत्रों का दर्शन है
‘साई इतना दीजिए, मेरा घर भर जाए-
मैं अकेला मौज करू, दुनिया भाड़ में जाए’
दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन के नाम पर खुलकर दिखावा करने वाला धनिक वर्ग वर्ष के शेष दिन स्वयं को निस्वार्थ और परोपकार में लीन रहने का दिखावा करता है। अवसर मिले तो अपने महान अध्यात्मिक ज्ञान के प्रदर्शन से भी पीछे नहीं रहता है। उसके मन में बेशक कुछ भी हो लेकिन होठों पर यही होता है- पैसा ही सब कुछ नहीं है। वे लोग जो वर्षभर सरस्वती के भक्त होते है वे भी इस दिन ‘लक्ष्मी’ के प्रति भक्ति का प्रदर्शन करते हुए संकोच नहीं करते। लक्ष्मी पूजन की चकाचौंध के बावजूद समाज में बहुत लोग ऐसे भी हैं जो अंधेरों में लगातार लड़ते रहते है। आज भी लड़ेगे। उनके लिये दीपावली एक औपचारिकता भर है।
जाहिर है कि एक दिन के बाहरी प्रकाश से मन-मस्तिष्क का अंधेरा दूर नहीं हो सकता। माँ सरस्वती की कृपा होने पर लक्ष्मी की अल्पता से भी काम चल सकता है पर लक्ष्मी की अधिकता के बावजूद अगर सरस्वती कृपा नहीं करती या बहुत कम कृपा करती है तो जीवन में सबकुछ होते हुए भी कष्ट ही कष्ट है। दीपक जलाने से बाहरी अंधेरा दूर हो सकता है पर मन का अंधेरा केवल ज्ञान ही दूर करता है। बाहरी चकाचौंध में लिप्त वर्ग को आंतरिक प्रकाश की चिंता नहीं रहती जो कि एक अनिवार्य शर्त है जीवन प्रसन्नता से गुजारने की।
अब वह समय कहां रहा जब सारे पर्व परंपरागत ढंग से मनाये जाते थे? आधुनिक तकनीकी ने नये साधन उपलब्ध करा दिये हैं। दीपावली के पर्व पर मिठाई खाने से मन रोकता है क्योंकि नकली घी, खोए, शक्कर और संथेटिक दूध के समाचार डराते हैं। उस पर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने अभक्ष्य पदार्थ बेचने के लिए इलैक्ट्रोनिक माध्यमों से क्षण-प्रतिक्षण विज्ञापनों का मधुर जाल बुनती है। इस जाल से बचने के लिए विवेक चाहिए जो मां सरस्वती ही प्रदान कर सकती है।
दिवाली से जुड़े भौतिक तत्वों के उपयोग में परंपरागत शैली अब नहीं रही। वैसे तो आजकल चीन के बने हुए सामान की बाजार में भरमार है पर दिवाली की बात ही कुछ और है। पटाखे, बिजली की लड़ियां, दिवाली गिफ्ट, खिलौने, आखिर क्या नहीं है चीन का। सरकार की गलत नीतियों के कारण अपने कुटीर उद्योग बंद हो रहे हैं और हमारी पूंजी विदेशी में जा रही है। ऐसे में लक्ष्मी पूजन का औचित्य समझ से परे है। आत्म प्रदर्शन के चलते कोई आत्म मंथन करना नहीं चाहता। ऐसे में अज्ञान का अंधेरा बढ़ता जाता है और हम बाहरी प्रकाश देखने-दिखाने में ही अपनी शान समझते है। यह प्रश्न विचारधीय है कि हम विकास कर रहे है। हमारे पास पहले के मुकाबले भौतिक वस्तुओं की भरमार है। इन्हें भौतिक सुख के साधन भी कहा जा सकता है लेकिन इतने उपलब्ध सुखों के रहते हुए भी अशांति क्यों है।
जिस समाज में श्रम का सम्मान कम होता है, वहां असमानता और उसके परिणाम स्वरूप विद्रोह की अग्नि प्रज्जवलित रहती है। धन- प्रदर्शन की चकाचौंध में जिन्हें समाज के अपने उपेक्षित बंधुओं के हृदय में उठ रही चिंगारी दिखाई नहीं देती वे सरस्वती पूजन रते हुए भी विवेक रहित हैं। हमारे मन में कामनाओं के साथ ज्ञान का भी वास हो तो अपनी संवेदना से हम दूसरों का दर्द पढ़ सकते हैं। विवेक मानवता की प्रथम शर्त है। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम प्रकृति और अन्य जीवों को अनदेखा न करे। चकाचौंध में हम आत्ममुग्ध नहीं, अंतर्मुखी बनें। आत्ममुग्धता हमें अंधेरों का बंदी बनाती है। अंधेरों से भिड़ने की जो क्षमता माटी के दीये में वही हमारे हृदय में हो तो दीवाली सार्थक है वरना दीये जलते रहेगे लेकिन हम अंधेरों में ही रहेगे क्योंकि हमने लक्ष्मी पूजन करते हुए भी गणेश और सरस्वती की कृपा से वंचित हैं।
दिवाली पर त्रयी पूजन का एक ही अर्थ है- जो सभी का सुख चाहते हैं वही सुखी रहते हैं।
-डा. विनोद बब्बर
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