"दूसरों को दोष देना बंद करें, अपने कर्मों को देखें"

तुम कहते हो कि मेरा जीवन सुख शान्ति से व्यतीत होता यदि अमुक बुरा आदमी मेरे जीवन में न आता। कोई कहता है मेरी पत्नी खराब है उसने मेरा जीवन मुश्किल कर दिया है। कोई कहता मेरी पुत्रपधु खराब है, कोई कहता है मेरे पिता ने अपने संतान के प्रति उत्तरदायित्वों को ठीक ढंग से पूरा नहीं किया, कोई कहता है मेरे बच्चे नालायक हैं मेरा अपमान करते हैं। कोई कुछ कहता है तो काई कुछ। तुम हमेशा यही कहते हो कि मेरे जीवन के बगीचे को दूसरों ने उजाड़ा है, परन्तु ध्यान से देखना कहीं तुम ही स्वयं अपने जीवन को उजाडऩे के कारण ही न रहे हों? इंसान जो बोता है वही काटता है जैसे कर्म करता है वह वैसे ही फल पाता है। परमात्मा की न्याय व्यवस्था के अनुसार जैसी करनी होगी भरी भी वैसी ही पड़ेगी। आप जो पा रहे हो जो कष्ट उठा रहे हो जो अपमान या पीड़ा झेल रहे हो वह आपके किसी न किसी समय ही बुरी करनी का फल ही है। यदि व्यक्ति इस प्रमाद से बाहर आ जाये, यह समझ जाये कि अवश्य ही मैंने कोई पाप किया होगा, कोई त्रुटि की होगी, उसी का तो फल मैं भुगत रहा हूं तो आपको दूसरों से यह शिकायत होगी ही नहीं। जिसके कारण तुम्हें वह पीड़ा झेलनी पड़ रही है वह तो इसका निमित्त मात्र है। दोषी तो मैं ही हूं। परमात्मा मुझे मेरे किये की सजा दे रहा है तो आपकी यह आपत्ति स्वत: दूर हो जायेगी।