मानव जीवन में ईर्ष्या, काम, द्वेष, क्रोध, मोह और चिंता जैसे विकार समय-समय पर जन्म लेते रहते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने निकट संबंधी या परिचित का वैभव देखता है और उसके भीतर ईर्ष्या का भाव उठता है, तो वह ईर्ष्यालु बन जाता है। इसी प्रकार जब काम का वेग उत्पन्न होता है और उस पर नियंत्रण नहीं रहता, तो मनुष्य व्याभिचारी कहलाता है। किसी के प्रति दुर्भावना पनपने पर द्वेष जाग उठता है, अप्रिय घटना या अपमान होने पर क्रोध आता है, प्रिय वस्तु के मोह में मनुष्य मोहित हो जाता है और जीवन की अनिश्चितताओं से ग्रस्त होकर चिंता उत्पन्न होती है।
ये सभी विकार क्षणिक और कभी-कभी अल्पकालिक होते हैं। जब इनका ज्वार उतरता है, तो मनुष्य अपने स्वभाविक रूप में लौट आता है। विवेक जाग्रत होने पर व्यक्ति अपने आचरण पर पछताता भी है। इन सभी विकारों का मूल कारण कुसंस्कार और कुसंगति बताई गई है। जब मनुष्य गलत संगति या दूषित विचारों के संपर्क में आता है, तो उसके भीतर ये नकारात्मक प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं।
इन विकारों से मुक्ति का एकमात्र उपाय सत्संग बताया गया है। सत्संग का अर्थ है — सच्चे साधु-संतों, चरित्रवान विद्वानों या सत्शास्त्रों का संग। ऐसा संग मनुष्य के भीतर शुद्ध विचारों का संचार करता है और उसके मन को स्थिरता प्रदान करता है। जब कोई व्यक्ति नियमित रूप से सत्संग करता है, तो उसके भीतर विकार पनप ही नहीं पाते, और यदि कभी उत्पन्न भी हों, तो वह उन पर नियंत्रण पा लेता है।
यद्यपि हर समय विद्वानों और संतों का सान्निध्य मिलना संभव नहीं है, किंतु सत्शास्त्र सदैव उपलब्ध हैं। मनुष्य यदि नियमित रूप से धर्मग्रंथों, प्रेरणादायक साहित्य या अच्छे विचारों का अध्ययन करे, तो वह निरंतर सत्संग में रह सकता है। यही सत्संग उसके भीतर से अंधकार मिटाकर उसे आत्मसंयम, विवेक और शांति की ओर अग्रसर करता है।
सच्चा सत्संग ही वह औषधि है, जो जीवन के सभी विकारों को दूर कर मनुष्य को सजग, संतुलित और सदाचारी बना सकती है।