मन का तीर्थ ही सर्वोत्तम तीर्थ है

मनुष्य अपने जीवन में तीर्थयात्राओं को सौभाग्य मानता है। वह गंगा-स्नान, काशी, प्रयाग, बद्रीनाथ, अमरनाथ आदि की यात्रा को पुण्यदायी समझता है, किंतु क्या वास्तव में तीर्थ का अर्थ केवल किसी पवित्र स्थान की यात्रा करना है?

गंगा में स्नान करके हम शरीर की बाहरी शुद्धि तो कर लेते हैं, लेकिन क्या मन की अशुद्धता भी दूर होती है? वास्तविक तीर्थ वह है जो हमारे मन को निर्मल करे, हमारे राग-द्वेष को समाप्त करे, और हमें आत्मा और परमात्मा से जोड़ दे। इस दृष्टि से देखा जाए तो माता-पिता, गुरु, सच्चे संतों के वचन और उनका सान्निध्य भी तीर्थ ही हैं।
यह कहा गया है — “जहां संत, वहीं काशी।” संतों को चलते-फिरते तीर्थ कहा गया है, क्योंकि उनका जीवन स्वयं में प्रेरणा का स्रोत होता है। वे हमारे भीतर सोई हुई चेतना को जगाते हैं, हमारे विचारों को पवित्र बनाते हैं।
सच्चाई यह है कि तीर्थों का मूल्य श्रद्धा और विश्वास में निहित है। जिन कार्यों से मन में पवित्रता, विनम्रता, समर्पण का भाव उत्पन्न हो, वही कार्य और वही स्थान तीर्थ बन जाते हैं।
इसलिए, जब तक मन शुद्ध नहीं होता, कोई भी तीर्थ यात्रा पूर्ण नहीं मानी जा सकती। बाह्य तीर्थयात्रा तभी सार्थक होती है जब वह अंतरात्मा की यात्रा में बदल जाए।