सेहत के लिए घातक है ‘सोशल ड्रिंकिंग’

-पूनम दिनकर
भारतीय समाज, स्वास्थ्य विभाग और कानून भले ही शराब के पीने से जुड़ी बुराइयों का चाहे कितना भी प्रचार क्यों न करे
परन्तु दशहरा, दीपावली, होली आदि अन्य पारिवारिक उत्सवों पर ’पीने वालों‘ की कमी नहीं होती। शराब पीने वाले स्वयं
को ’सोशल ड्रिंकर‘ मान कर पियक्कड़ कहलाने से बचे रहना चाहते हैं।
सोशल ड्रिंकिंग का दायरा क्लबों व फाइवस्टार होटलों से होते हुए घरों के ड्राइंगरूमों तक आ पहुंचा है। हैरत तो इस बात
की है कि सोशल ड्रिंकिंग’ ने अपने पैरों को अब ’बेडरूम‘ तक भी फैलाना प्रारंभ कर दिया है। आज के समय में सोशल
ड्रिंकिंग’ को समृद्धि और आधुनिकता की पहचान से जोड़कर देखा जाने लगा है। काकटेल पार्टी के बिना समारोह को सोशल
ड्रिंकर अधूरा ही मानते हैं क्योंकि उन्हें शराब के बिना हर सामाजिक व पारिवारिक उत्सव सूना-सूना लगता है।
पार्टियों में पीना और पिलाना अब हाई सोसायटी का ही हिस्सा नहीं रहा, बल्कि मध्यवर्ग के परिवारों के लिए भी ’स्टेटस
सिंबल‘ बनता जा रहा है। गलत शौक रखने वालों ने ही सोशल ड्रिंकिंग को अब मूड फ्रेश करने, स्टेªस और टेंशन भगाने
का एक बेहतर तरीका बताना शुरू कर दिया है लेकिन बोतल के स्तर को ’गुड लिविंग‘ से जोड़ने वालों के लिए यह
समझना बेहद जरूरी है कि जहर का सेवन किसी भी मात्रा में किया जाय, वह जहर ही रहता है। शराब चाहे क्लबों में पी
जाए या ड्राइंगरूम में, वह हर सूरत में हानिकारक ही होती है।
एक बीमा कम्पनी में कार्यरत श्रीमती सुधा ठाकुर के अनुसार यह सोशल ड्रिंकिंग का ही परिणाम है कि लोग शराब के घूंट
को गले से उतारे बिना ’पार्टी मूड‘ में नहीं आते। हद तो तब होती है जब न पिलाने वाले के यहां भी लोग अपने घर से
पीकर आते हैं और गलत हरकतों को करना शुरू कर देते हैं। ’सोशल डिंªकिंग महज शब्दों का भुलावा है जो कुछ घंटों के
बाद पियक्कड़ों की राह पर निकल पड़ता है।
श्रीमती ठाकुर भावावेश में आती हुई कहती हैं कि पीने वालों को तो बस पीने का बहाना चाहिए। वे कभी गैदरिंग के नाम
पर पीते हैं तो कभी सोशल स्टेटस का लबादा ओढ़कर शराबनोशी को जायज ठहराते हैं पर उसका दुष्परिणाम उनके साथ-
साथ उनके परिवार वालों व समाज को भी भुगतना ही पड़ता है।
महिला महाविद्यालय की प्राध्यापिका श्रीमती सुशीला टण्डन ’सोशल ड्रिंकिंग‘ के विषय में कहती हैं कि इसके कारण ही
लोगों ने घरों में बार बनाने शुरू कर दिये हैं। घर में शराब की बोतलें रखने के चलन ने पीने की इस सामाजिक आदत को
और अधिक खतरनाक रूप दे दिया है। ड्राइंगरूम में बैठकर शराब पीना परिवार के छोटे सदस्यों खासकर बच्चे-बच्चियों पर
गलत प्रभाव डालता है।
वे भी यह सोचने लगते हैं कि जब बड़े ही पीते हैं, तो उनके पीने में क्या बुराई है? परिवार के किशारों के बीच पनपती यही
सोच आगे चलकर ’टीनएज ड्रिंकिंग‘ की समस्या खड़ी कर देती है। कच्ची उम्र में बच्चा जब अपने परिवार के सदस्यों को
बेहिचक पीते देखता है तो उसे गलत काम भी सही प्रतीत होने लगता है। ऐसे गलत प्रभाव से ही ’सोशल डिंªकिंग‘ की
कडि़यां बनती हैं।
आज के सोशल ड्रिंकिंग’ भले ही अपने आप को ’पियक्कड़‘ न मानते हों किन्तु शराब पीना किसी भी सूरत में सामाजिक
जश्न का हिस्सा नहीं हो सकता। गाली घर पर दें या भगवान के मन्दिर में, गाली का दुष्प्रभाव तो होता ही है। सोशल
ड्रिंकिंग’के नाम पर आम आदमी की मौलिक जरूरतों का हिस्सा बनती शराब हमारे सामाजिक परिवेश के लिए व आने
वाली पीढि़यों की सेहत के लिए खतरनाक है और हमेशा रहेगी। (स्वास्थ्य दर्पण)
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