पाकिस्तान में सीडीएफ संकट: क्या भारत का पड़ोसी मुल्क बिखरने की कगार पर!

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नई दिल्ली। पाकिस्तान में चीफ ऑफ डिफेंस फोर्सेज (सीडीएएफ) को लेकर मचा तूफान अब सिर्फ सत्ता संघर्ष नहीं रहा, बल्कि यह दक्षिण एशिया की सुरक्षा व्यवस्था को हिलाने वाला संकट बन चुका है। 27वें संविधान संशोधन के बाद आसिम मुनीर को तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर बनाने की प्रक्रिया जिस तरह ठहरी हुई है, उसने पाकिस्तान को एक बार फिर उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां सैन्य, राजनीतिक और न्यायिक ढांचे एक-दूसरे पर अविश्वास की लड़ाई में उलझ चुके हैं। जियो टीवी पर सरकार के वरिष्ठ अधिकारी डॉक्टर तौकीर शाह ने मंगलवार को जो कहा, वह अनिश्चितता की ओर इशारा कर रहा है।

वह भले ही इसे “महज शरारत” कहते हुए यह दावा कर रहे हों कि “सेना-सत्ता के बीच टकराव नहीं है” और नवाज शरीफ, फील्ड मार्शल मुनीर को उच्च सम्मान देते हैं, लेकिन जमीन पर उठती धूल कुछ और कहानी सुना रही है। इमरान खान से काफी जद्दोजहद के बाद उनकी बहन उज्मा जब आदियाला जेल से बाहर आईं (2 दिसंबर) तब भी उन्होंने आसिम मुनीर का जिक्र नेगेटिव सेंस में लिया। ये स्पष्ट दर्शाता है कि सियासत और सेना एक पटरी पर चलने को राजी नहीं हैं। स्काई न्यूज को बुधवार को दिए इंटरव्यू में इमरान की दूसरी बहन अलिमा ने दावा किया कि मुनीर एक कट्टरपंथी हैं इसलिए भारत से जंग चाहते हैं। भारत को यहीं सतर्क रहने की जरूरत है। एक ऐसा पाकिस्तान जहां सत्ता संतुलन ढह चुका है, जहां सेना अपनी संरचना को पूरी तरह केंद्रीकृत कर रही है, जहां राजनीतिक शक्तियां खासतौर पर पीटीआई और इमरान खान सीधे-सीधे सेना प्रमुख को “इतिहास का सबसे अत्याचारी, मानसिक रूप से अस्थिर तानाशाह” बता रही हैं, और जहां संविधान को एक सैन्य ढाल में रूपांतरित किया जा रहा है, तो ऐसे पाकिस्तान का अनुमान लगाना कठिन होता है, और यही उसे खतरनाक बनाता है। इमरान खान और पीटीआई का आरोप है कि सीडीएफ मॉडल असल में एक “संवैधानिक तख्तापलट” है। एक ऐसा ढांचा जो नागरिक शासन को कागज की परत तक सीमित कर देता है। जब एक ही व्यक्ति के पास तीनों सेनाओं की कमान, परमाणु हथियारों की सुरक्षा संरचना, रणनीतिक नीति और आंतरिक सुरक्षा पर अंतिम शब्द हो और उस फैसले को चुनौती देने वाला कोई राजनीतिक या न्यायिक ढांचा बचा न रहे- तब पड़ोसी देशों के लिए यह अस्थिरता एक बड़ा सुरक्षा जोखिम बन जाती है।

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भारत जानता है कि पाकिस्तान में जब भी आंतरिक शक्ति-संघर्ष गहरा होता है, तो अक्सर सीमा पर ध्यान भटकाने वाले कदम उठाए जाते हैं—कभी अचानक गोलीबारी, कभी आतंक-समर्थित उकसावे, कभी कश्मीर मुद्दे पर आक्रामक बयानबाजी। यह सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि पाकिस्तान की राजनीतिक प्रवृत्ति का एक स्थापित पैटर्न है। आज का संकट उस पैटर्न के कहीं बड़े संस्करण की आहट देता है। अगर पाकिस्तान के भीतर सत्ता दो खेमों—एक सेना प्रमुख के नेतृत्व वाला और दूसरा पीटीआई समर्थित जन-आक्रोश—में बंटती है, और सरकार सिर्फ सफाई देकर स्थिति संभालने की कोशिश करती है, तो यह एक ऐसे राष्ट्र का संकेत है जो घरेलू असंतुलन को बाहरी तनाव से ढकने की कोशिश कर सकता है। भारत को सबसे ज्यादा चिंता इस बात की होनी चाहिए कि सत्ता केंद्रीकरण की यह नई व्यवस्था सीमाई निर्णयों को और अस्पष्ट और आक्रामक बना सकती है।

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अगर पाकिस्तान की शीर्ष सैन्य सत्ता समझती है कि लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर है और राजनीतिक विपक्ष दबाया जा चुका है, तो किसी भी उकसावे को सैन्य प्रतिक्रिया से दबाने की प्रवृत्ति और तेज हो सकती है। पाकिस्तान खुद कह रहा है कि सब सामान्य है, लेकिन उसकी राजनीति, सड़कों पर असंतोष, सेना के भीतर खिंचाव, पाकिस्तान तहरीक इंसाफ का उग्र आरोप, और सीडीएफ नोटिफिकेशन की अनिश्चितता यह दिखाती है कि देश अपनी ही संस्थाओं द्वारा खींचे जा रहे रस्साकशी में उलझा है। भारत के लिए यह पड़ोसी सिर्फ अस्थिर नहीं, बल्कि अपनी अस्थिरता से बाहर आग उगलने की प्रवृत्ति वाला पड़ोसी भी है। 

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