अभिमान और अवमान के पापस्वरूप: एक विचार

अभिमान और अवमान, दोनों ही मानव जीवन के ऐसे पापस्वरूप हैं जो व्यक्ति की आत्मा पर गहरा प्रभाव डालते हैं। अभिमान में व्यक्ति अपने आप को अत्यधिक श्रेष्ठ समझता है और आत्मश्लाघा की गिरफ्त में आ जाता है। वहीं, अवमान आत्मा की गिरावट का प्रतीक है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को अयोग्य और असमर्थ मानकर हीन भावना से भर जाता है।

इसके विपरीत, आत्मसम्मान और आत्मज्ञान का मार्ग अपनाने से जीवन में सतोगुणों का विकास होता है। व्यक्ति पाप से बचकर आत्मिक संतुलन स्थापित करता है। यह आत्मिक संतुलन ही मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य है, जिसे अभिमान और अवमान से दूर रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
समाज में सम्मान पाने के लिए व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अपने भीतर इस संतुलन को बनाए रखे। यही हमें सिखाता है कि पाप से बचने और समाज में सम्मान प्राप्त करने के लिए अभिमान और अवमान दोनों से दूर रहकर निरंतर आत्मज्ञान की ओर प्रयास करना चाहिए।