बिहार चुनाव में फिर ‘आधी आबादी’ रही आधी, एनडीए और महागठबंधन ने सिर्फ 53 महिलाओं को दिया टिकट
Bihar News: बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गई है। वर्ष 2023 में संविधान के 106वें संशोधन के तहत राजनीति में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया था। तब सभी बड़ी पार्टियों ने आधी आबादी को बराबरी का प्रतिनिधित्व देने का वादा किया था। लेकिन जब टिकट बांटने की बारी आई, तो वही पार्टियां अपने वादों से पीछे हट गईं। आरक्षण का फायदा तो दूर, महिलाओं की हिस्सेदारी उम्मीद से भी कम रही।
एनडीए और महागठबंधन
पार्टी की कार्यकर्ता रहीं उपेक्षित
पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्टीय लोक मोर्चा को छह सीटें मिलीं, और उन्होंने एक सीट पर अपनी पत्नी स्नेहलता को उम्मीदवार बनाया। ऐसा नहीं कि पार्टी में कोई सक्षम महिला कार्यकर्ता नहीं थी, लेकिन टिकट फिर उन्हीं लोगों को मिला जो पारिवारिक रिश्तों से सत्ताधारी नेताओं से जुड़े हैं। इस तरह एनडीए की ओर से कुल 35 महिलाओं को टिकट मिला—जो कुल सीटों का महज 14 प्रतिशत भी नहीं है।
महागठबंधन में भी वही कहानी
महागठबंधन की स्थिति भी इससे बेहतर नहीं रही। यहां कुल 18 महिला उम्मीदवारों को ही टिकट मिला। इनमें राजद ने 11, कांग्रेस ने 5, और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) व सीपीआई(एमएल) ने एक-एक महिला उम्मीदवार उतारी। वहीं माकपा और भाकपा ने एक भी महिला को टिकट नहीं दिया। साफ है कि महिला सशक्तिकरण का नारा इन पार्टियों के लिए चुनावी भाषणों तक सीमित रह गया।
मतदान में महिलाएं आगे
चुनावी इतिहास पर नज़र डालें तो 2010 से अब तक हर विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने पुरुषों से अधिक वोट डाले हैं। 2010 में जहां 50.70 प्रतिशत पुरुषों ने मतदान किया, वहीं महिलाओं का मतदान प्रतिशत 54.85 रहा। इसके बावजूद उम्मीदवारों में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार 10 प्रतिशत से नीचे रही। इस बार भी वही रुझान दोहराया गया—बाहुबलियों की पत्नियों या रिश्तेदारों को टिकट देकर पार्टियों ने महिला राजनीति की असली भावना को कमजोर किया।
क्या आरक्षण सिर्फ ढाल है या राजनीतिक प्रतिबद्धता का इम्तहान
साल 2023 का महिला आरक्षण विधेयक ‘संविधानिक उपलब्धि’ कहलाया था, लेकिन उसका असर अब तक जमीनी राजनीति में नहीं दिख रहा। बिहार जैसे राजनीतिक रूप से सक्रिय राज्य में महिलाओं को टिकट देने में जिस तरह की कंजूसी दिखाई गई है, वह आने वाले समय में राजनीतिक दलों के प्रति मतदाताओं की धारणा को बदल सकती है। सवाल यह भी उठता है कि जब महिलाएं वोट देने में आगे हैं, तो सत्ता में पहुंचने की उनके दरवाज़े क्यों बंद हैं?
