संस्कारों से बनती है आदमी की पहचान



दूसरे प्रकार के संस्कार पूर्व जन्म के होते हैं। मान्यता है कि आत्मा अनेक जन्मों की यात्रा करती है और उस यात्रा के दौरान अर्जित अनुभव एवं कर्म इस जन्म को भी प्रभावित करते हैं। ये संस्कार अदृश्य रूप से हमारे व्यवहार और प्रवृत्तियों में झलकते हैं।
तीसरे प्रकार के संस्कार वे होते हैं जो हमें परिवार से प्राप्त होते हैं। माता-पिता, दादा-दादी और परिवार के वातावरण से जो शिक्षा, आदर्श और अनुशासन मिलता है, वह हमारे जीवन की नींव बनता है। इन्हें पारिवारिक या अनुवांशिक संस्कार कहा जाता है।
चौथे प्रकार के संस्कार सामाजिक जीवन से प्राप्त होते हैं। व्यक्ति की संगति, उसके मित्र, साथी, पड़ोसी तथा कार्यस्थल का वातावरण उसकी सोच और व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालते हैं। अच्छी संगति जहाँ जीवन को ऊँचाइयों तक पहुँचा सकती है, वहीं बुरी संगति व्यक्ति को पतन की ओर भी ले जा सकती है।
अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण प्रकार के संस्कार वे हैं जिन्हें व्यक्ति अपनी इच्छा शक्ति से स्वयं बनाता है। इन्हें इच्छा शक्ति के संस्कार कहा जाता है। यदि व्यक्ति चाहे, तो वह आत्मचिंतन, सकारात्मक विचार और दृढ़ संकल्प के द्वारा अपने कुसंस्कारों को मिटा सकता है और श्रेष्ठ संस्कारों को जागृत कर सकता है।
कुछ लोग मानते हैं कि अब सुधार संभव नहीं, क्योंकि पारिवारिक संस्कारों का प्रभाव कम हो गया है, मूल संस्कार दब गए हैं, और संगति के प्रभाव में हम भटक गए हैं। लेकिन यह सोच निराशाजनक है। जब तक इच्छा शक्ति जीवित है, तब तक परिवर्तन संभव है।
सकारात्मक सोच और संकल्प शक्ति के साथ यदि व्यक्ति प्रयास करे, तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है। वह न केवल अपने जीवन को संवार सकता है, बल्कि समाज में एक प्रेरणादायक भूमिका भी निभा सकता है।