ज्ञान प्राप्ति के मूल मंत्र: सादा जीवन, उच्च विचार और चरित्र



धैर्यहीनता और आलस्य को ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। वास्तविक ज्ञान की वृद्धि तभी होती है जब व्यक्ति बाह्य प्रदर्शन से अधिक आन्तरिक श्रेष्ठता पर बल देता है। प्राप्त ज्ञान का लाभ बिना किसी भेदभाव के समाज के सामान्य व्यक्ति तक पहुँचना चाहिए, ताकि ज्ञान रूपी गंगा का प्रवाह निरंतर बना रहे।
सुसंस्कार और चरित्र निर्माण
शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो विद्यार्थियों में सुसंस्कार पैदा करे और युवा वर्ग में चरित्र तथा सदाचार का विकास करे।
ज्ञान के जिज्ञासुओं को निम्नलिखित दोषों से स्वयं को दूर रखना चाहिए, अन्यथा वे माँ सरस्वती की कृपा से वंचित रह सकते हैं:
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कृत्रिमता
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मादक वस्तुओं का सेवन
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सौंदर्य प्रसाधन का अत्यधिक प्रयोग
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जुआ
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निंदा और असत्य वचन
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धैर्यहीनता
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दूसरों का अपमान
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पर स्त्री के प्रति आकर्षण
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कुसंगति (बुरी संगत)
वक्ता ने दुख और चिंता का मुख्य कारण वर्तमान शिक्षा प्रणाली में संदर्भित विषयों के प्रति उपेक्षा का भाव बताया है, जिसके कारण हमारी युवा पीढ़ी आज दिग्भ्रमित हो रही है। ज्ञान और सद्गुणों के सही मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं का चरित्र निर्माण बाधित हो रहा है।