"अंतरात्मा की शुद्धि ही परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है"

ज्ञानाग्नि में अपने समस्त विकारों का स्वाहा कर डालना सर्वोपरि यज्ञ है। अन्त:करण की पवित्रता के लिए जो प्रयास किये जाये वही वास्तविक धार्मिक अनुष्ठान हैं। नि:स्वार्थ प्रेम की पवित्र जलधारा में डुबकी लगाना ही सच्चा गंगा स्नान है, विकार रहित शुद्ध और पवित्र अन्त:करण सर्वश्रेष्ठ तीर्थ हैं तथा घट-घट में विराजमान आत्मत्व को पहचानकर परमात्मा तत्व के सहज स्वरूप को प्राप्त कर लेना जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है, जितनी चाह हमें सांसारिक वस्तुओं की है उतनी लगन और चाह हमें परमात्मा के प्रति भी होनी चाहिए। भूख लगने पर ही भोजन, प्यास लगने पर पानी अच्छा लगता है वैसे ही ईश्वर के प्रति चाह पैदा करने के लिए उनमें श्रद्धा और प्रेम आवश्यक है। भक्ति और ज्ञान दोनों साधक के सोये मन को जगाकर सदा साथ रहने वाले परमात्मा से जोड़ते हैं। हमने ईश्वर को खोया नहीं है, भुला दिया है। खोया वह जाता है जो हमसे दूर हो गया हो अथवा हमारे से हटा दिया गया हो, लेकिन परमात्मा तो हमारे अन्तर में स्थित है, परन्तु हम उसे देख नहीं पा रहे हैं। आवश्यकता है अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान के प्रकाश को प्रकाशित करने की, तभी जीव परमात्मा को प्राप्त कर आनन्द लोक में प्रतिष्ठित हो सकता है।