शरीर को सुख भौतिक साधनों और सुविधाओं से प्राप्त होता है, लेकिन आत्मा का सच्चा सुख परमार्थ और परहित से ही संभव है। जब तक आत्मा को परमार्थ द्वारा संतुष्टि नहीं मिलती, वह हमेशा अतृप्त रहती है। भौतिक सुख केवल शरीर के लिए हैं, आत्मा को इससे प्रसन्नता नहीं मिलती।
आत्मा की संतुष्टि का स्रोत हैं सेवा और परहित के कार्य। अपार साधनों और सुख-सुविधाओं के बावजूद अगर आत्मा संतुष्ट नहीं है, तो मनुष्य को हमेशा एक आंतरिक अभाव खटकता रहेगा। वास्तविक सुख वही है जो आत्मा को प्रसन्न करे।
परमार्थ का सबसे प्रभावशाली व्यवहारिक रूप है सेवा। ऐसे कार्य जो आदर्शों और परहित के लिए किए जाते हैं, आत्मा के विकास में सहायक होते हैं और उन्हें परमार्थ की श्रेणी में रखा जाता है। इसलिए सेवा और परमार्थ के लिए समर्पित जीवन ही सबसे सार्थक और सफल जीवन माना जाता है।
सार्थक जीवन वही है जिसमें आत्मा की प्रसन्नता और संतुष्टि सर्वोपरि हो।